Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 393
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार - इन्द्रिय दमन नामक सोलहवां द्वार-चक्षु इन्द्रिय का दृष्टांत स्नात्र महोत्सव के समय में जैसे इन्द्र काया के पाँच रूप करता है वैसे उसने पंचत्व प्राप्त किया अर्थात् मर गई । कुछ समय के बाद उसका पति आया और पत्नी का सारा वृत्तांत सुनकर पुष्पशाल की अत्यंत शत्रुता को जानकर उसे बुलाया और अति उत्तम भोजन द्वारा गले तक खिलाकर कहा कि हे भद्र! गीत गाते महल पर चढ़। इससे अत्यंत दृढ़ गीत के अहंकार से सर्व शक्तिपूर्वक गाता हुआ वह महल के ऊपर चढ़ा । फिर गाने के परिश्रम से बढ़ते वेग वाले उच्च श्वास से मस्तक की नस फट जाने से बिचारा वह मर गया। इस तरह श्रोत्रेन्द्रिय का महादोष कहा । । ९०२४ ।। अब चक्षु इन्द्रिय के दोष में दृष्टांत देते हैं। वह इस प्रकार : चक्षु इन्द्रिय का दृष्टांत पद्म खंड नगर में समरधीर नामक राजा राज्य लक्ष्मी को भोग रहा था। समस्त नीति का निधान वह राजा परस्त्री, सदा माता समान, परधन तृण समान और परकार्य को अपने कार्य के सदृश गिनता था । शरण आये कारक्षण, दुःखी प्राणियों का उद्धार आदि धर्म कार्यों में प्रवृत्ति करते अपने जीवन का भी मूल्य नहीं समझा था । एक समय सुखासन में बैठे उसे द्वारपाल ने धीरे से आकर आदरपूर्वक नमस्कार करते विनती की कि - हे देव ! आपके पाद पंकज के दर्शनार्थ शिव नामक सार्थपति बाहर खड़ा है। 'वह यहाँ आये या जाये ?' राजा ने कहा कि आने दो। फिर नमस्कार करते हुए प्रवेश करके उचित आसन पर बैठा और इस प्रकार से कहने लगा कि - हे देव ! मेरी विशाल नेत्र वाली रूप से रंभा को भी लज्जायुक्त करती, सुंदर यौवन प्राप्त करने वाली, पूनम के चंद्र समान मुख वाली, उन्मादिनी नाम की पुत्री है। वह स्त्रियों में रत्नभूत है, और राजा होने से आप रत्नों के नाथ हो, इसलिए हे देव ! यदि योग्य लगे तो उसे स्वीकार करो। हे देव! आपको दिखाये बिना कन्या रत्न को यदि दूसरे को दूँ तो मेरी स्वामी भक्ति किस तरह गिनी जाये? अतः आपको निवेदन करता हूँ, यद्यपि माता, पिता तो अत्यंत निर्गुणी भी अपने संतानों की प्रशंसा करते हैं, वह सत्य है, परंतु उसकी सुंदरता कोई अलग ही है। जन्म समय में भी इसने बिजली के प्रकाश के समान अपने शरीर से सूतिका घर को सारा प्रकाशित किया था और ग्रह भी इसके दर्शन करने के लिए हैं। वैसे स्पष्ट ऊँचे स्थान पर थे। इस कारण से हे देव! आप से अन्य उसका पति न हो। इस तरह जानकर अत्यंत विस्मित मन वाले राजा ने उसे देखने के लिए विश्वासी मनुष्यों को भेजा । उनको साथ लेकर सार्थवाह घर आया, घर में उसे देखा और आश्चर्यभूत उसके रूप से आकर्षित हुए। फिर मदोन्मत मूर्च्छित अथवा हृदय से शून्य बने हों, इस तरह एक क्षण व्यतीत करके एकांत में बैठकर वे विचार करने लगे कि - अप्सरा को जीतने वाला कुछ आश्चर्यकारी इसका उत्तम रूप है, ऐसी अंग की शोभा है कि जिससे हम बड़ी उम्र वाले भी लोग इस तरह मुरझा गए हैं। हमारे जैसे बड़ी उम्र वाले भी यदि इसके दर्शन मात्र से भी ऐसी अवस्था हो गई है तो नवयौवन से मनोहर अंकुश बिना का सकल संपत्ति का स्वामी और विषय आसक्त राजा इसके वश से पराधीन कैसे नहीं बनेगा? और राजा परवश होते राज्य अति तितर-बितर हो जायगा और राज्य की अव्यवस्था होने से राजा का राजत्व खत्म हो जायगा । इस प्रकार हम लोग जानते हुए भी अपने हाथ से, राजा से इस कन्या का विवाह कर समस्त भावी में होनेवाले दोषों का कारण हम लोग क्यों बनें? इसलिए भी दोष बताकर राजा को इससे बचा लें। सबों ने यह बात स्वीकार की और राजा के पास गये। फिर पृथ्वी तल को स्पर्श करते मस्तक द्वारा सर्व आदरपूर्वक राजा को नमस्कार करके, मस्तक को नमाकर, हाथ जोड़कर वे कहने लगे कि - हे देव! रूपादि सर्व गुणों से कन्या सुशोभित है, केवल वह पति का वध करने वाली एक बड़ी दुष्ट लक्षणवाली है। इसलिए राजा ने उसे छोड़ दिया। फिर उसके पिता ने उस राजा सेनापति को उस कन्या को दी और उससे विवाह किया। फिर उसके रूप से, यौवन से और सौभाग्य से आकर्षित हृदयवाला सेनापति 376 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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