Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

View full book text
Previous | Next

Page 383
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नानक चौदहवाँ द्वार-शिवराजर्षि वी कथा की चर्या को स्वीकार की। वे निमेष रहित नेत्रों को सूर्य सन्मुख रखकर अतीव तप करते थे, तथा अपने शास्त्रानुसार शेष क्रिया कलाप को भी करते थे। इस प्रकार तपस्या करते उसे भद्रिक प्रवृत्ति से तथा कर्म के क्षयोपशम से विभंग ज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर उस ज्ञान से लोक को केवल सात द्वीप सागर प्रमाण जानकर, अपने विशिष्ट ज्ञान के विस्तार से वह शिवराजर्षि प्रसन्न हुआ। फिर हस्तिनापुर में तीन मार्ग वाले चौक में अथवा चौराहे में आकर वह लोगों को कहता था कि इस लोक में उत्कृष्ट सात द्वीप समुद्र हैं, उससे भी आगे लोक का अभाव है। जैसे किसी के हाथ में रहे कुवलय के फल को जानते हैं वैसे मैं निर्मल ज्ञान से जानता हैं। ___ उस समय श्री महावीर परमात्मा भी उस नगर में पधारे थे और श्री गौतम स्वामी ने भी भिक्षा के लिए प्रवेश किया। फिर लोगों के मुख से सात द्वीप समुद्र की बात सुनकर आश्चर्य पूर्वक श्री गौतम स्वामी ने प्रभु के पास आकर उचित समय पर प्रभु से पूछा कि-हे नाथ! इस लोक में द्वीप समुद्र कितने हैं? प्रभु ने कहा कि असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। इस प्रकार प्रभु से कथित और लोगों के मुख से सुनकर सहसा शिवऋषि जब शंकाकांक्षा से चल-चित्त हुआ, तब उसका विभंग ज्ञान उसी समय नष्ट हो गया और अतीव भक्ति समूह से भरे हुए उसने सम्यग्ज्ञान के लिए श्री वीर परमात्मा के पास आकर नमस्कार किया। फिर दो हस्त कमल मस्तक पर लगाकर नजदीक की भूमि प्रदेश में बैठकर और प्रभु के मुख सन्मुख चक्षु को स्थिर करके उद्यमपूर्वक सेवा करने लगा। तब प्रभु ने देव, तिथंच और मनुष्य से भरी हुई पर्षदा को और शिवऋषि को भी लोक का स्वरूप और धर्म का रहस्य विस्तारपूर्वक समझाया। इसे सुनकर सम्यग् ज्ञान प्राप्त हुआ उसने प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की और तपस्या करते उस महात्मा ने आठ कर्मों की अति कठोर गाँठ को लीला मात्र में क्षय करके रोग रहित, जन्म रहित, मरण रहित और उपद्रव रहित अक्षय सुख को प्राप्त किया। इसलिए हे क्षपक मुनि! जगत के स्वरूप को जानकर वैरागी, तूं प्रस्तुत समाधिरूप कार्य की सिद्धि के लिए मन को अल्पमात्र भी चंचल मत करना। हे क्षपकमुनि! लोक स्वरूप को यथा स्थित जानने वाला प्रमाद का त्यागकर तूं अब बोधि की अति दुर्लभता का विचार कर। जैसे कि : (११) बोधि दुर्लभ भावना :- कर्म की परतंत्रता के कारण संसाररूपी वन में इधर-उधर भ्रमण करते जीवों को त्रस योनि भी मिलनी दुर्लभ है। क्योंकि सूत्र सिद्धांत में कहा कि जिन्होंने कभी भी त्रस पर्याय को प्राप्त नहीं किया ऐसी अनंत जीवात्मा हैं वे बार-बार स्थावरपने में ही उत्पन्न होते हैं और वहीं मर जाते हैं। उनमें से महा मुश्किल से त्रस जीव बनने के बाद भी पंचेन्द्रिय बनना अति दुर्लभ है और उसमें पंचेन्द्रिय के अंदर भी जलचर, स्थलचर और खेचर योनियों के चक्र में चिरकाल भ्रमण करने से जैसे अगाध जल वाले स्वयंभू रमण समुद्र में आमने सामने किनारे पर डाला हुआ बैलगाड़ी का जुआ (धूरी) और कील का मिलना दुर्लभ है वैसे ही मनुष्य जीवन मिलना भी अति दुर्लभ है ।।८८००।। और उसमें बोधि ज्ञान की प्राप्ति तो उससे भी अनेक गुनी अति दुर्लभ है। क्योंकि, मनुष्य जीवन में भी अकर्म भूमि और अंतरद्वीपों में प्रायःकर मुनि विहार का अभाव होने से बोधि प्राप्ति कहाँ से हो सकती है? कर्म भूमि में भी छह खंडों में से पाँच खंड तो सर्वथा अनार्य हैं क्योंकि मध्य खंड के बाहर धर्म की अयोग्यता है। और जो भरत में छठा खंड श्रेष्ठ है उसमें भी अयोध्या के मध्य से साढ़े पच्चीस देश के बिना शेष अत्यंत अनार्य है, और जो साढ़े पच्चीस देश प्रमाण आर्य देश हैं वहाँ भी साधुओं का विहार किसी काल में किसी प्रदेश में ही होता है। क्योंकि कहा है कि : (१) मगध देश में राजगृही, (२) अंग देश में चम्पा, (३) बंग देश में तामलिप्ती, (४) कलिंग में कंचनपुर, (५) काशी देश में वाराणसी, (६) कौशल देश में साकेतपुर, (७) कुरु देश में गजपुर-हस्तिनापुर, (८) 366 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436