Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 361
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-ग्यारहवाँ चार शरण द्वार से दुःख को ही प्राप्त किया। उसी तरह महाव्रतों का पालन करते हुए भी आहारादि में आसक्त, मोक्ष साधना से भावना रहित व्रतों को आजीविका का हेतु मानकर उससे आजीविका करता है। वह इस जन्म में साधु वेश होने के कारण इच्छानुसार आहार आदि प्राप्त करता है, परंतु पंडितजनों में विशेष पूज्य नहीं बनता है, परलोक में दुःखी ही होता है। और जैसे धान के दाने रक्षण करने वाली यथार्थ नाम वाली रक्षिता नाम की पुत्रवधू स्वजनों को मान्य बनी और भोग सुख को प्राप्त किया। उसी तरह जीव पाँच महाव्रतों को सम्यक् स्वीकार करके अल्प भी प्रमाद नहीं करता और निरतिचार पालन करता है, वह आत्महित में एक प्रेमवाला इस जन्म में पंडितों से भी पूज्य बनकर एकांत से सुखी होते हैं और परलोक मोक्ष को प्राप्त करता है। और जैसे धान के दाने की खेती करानेवाली यथार्थ नाम वाली रोहिणी नाम की पुत्रवधू ने धान के दानों की वृद्धि कर सर्व का स्वामित्व प्राप्त किया, उसी तरह जो भव्यात्मा व्रतों को स्वीकार करके स्वयं सम्यक् पालन करें और दूसरे अनेक भव्य जीवों को सुखार्थ अथवा शुभहेतु संयम दे, संयम आराधकों की वृद्धि करे वह संघ में मुख्य, इस जन्म में (युगप्रधान) समान प्रशंसा का पात्र बनता है और श्री गणधर प्रभु के समान स्व-पर का उद्धार करते, कुतीर्थिक आदि को भी आकर्षण करने से शासन की प्रभावना करते और विद्वान पुरुषों से चरणों की पूजा करवाता क्रमशः सिद्धि पद भी प्राप्त करता है। इस तरह मैंने अनुशास्ति द्वार में पाँच महाव्रतों की रक्षा नाम का दसवाँ अंतर द्वार विस्तार से अर्थ सहित कहा, अब क्रमशः परम पवित्रता प्रकट करने में उत्तम निमित्तभूत 'चार शरण का स्वीकार' नामक ग्यारहवाँ अंतर द्वार कहता हूँ ।।८२४६ ।। ग्यारहवाँ चार शरण द्वार : ग्यारहवें अंतर द्वार में श्री अरिहंतों का स्वरूप और शरण :- अहो क्षपकमुनि! व्रतों का रक्षण कार्य करने वाला, तूं भी अरिहंत, सिद्ध, साधु और जैन धर्म, इन चारों की शरणागति स्वीकार कर। इसमें हे सुंदर! जिनके ज्ञानावरणीय कर्मों का संपूर्ण नाश हुआ है। जिन्हानें किसी तरह नहीं रुके ऐसे ज्ञान, दर्शन के विस्तार को प्राप्त किया है। भयंकर संसार अटवी के परिभ्रमण के कारणों का नाश करने से श्री अरिहंतपद को प्राप्त किया है। जन्म-मरण रहित सर्वोत्तम यथाख्यात चारित्र वाले हैं। सर्वोत्तम १००८ लक्षणों से युक्त शरीर वाले हैं। सर्वोत्तम गुणों से शोभित हैं। सर्वोत्तम जिन नामकर्म आदि पुण्य के समूहवाले हैं। जगत के सर्व जीवों के हितस्वी हैं और जगत के सर्व जीवों के परमबंधु-माता पिता तुल्य श्री अरिहंत भगवंतों को तूं शरण रूप में स्वीकार कर। तथा जिसके सर्व अंग सर्व प्रकार से निष्कलंक हैं, समस्त तीन लोकरूपी आकाश को शोभायमान करने में चंद्र समान हैं। पापरूपी कीचड़ को उन्होंने सर्वथा नाश किया हैं। दुःख से पीड़ित जगत के जीवों को पिता की गोद समान हैं। महान् श्रेष्ठ महिमा वाले हैं। परम पद के साधक रूप हैं। परम पुरुष, परमात्मा और परमेश्वर हैं तथा परम मंगलभूत हैं। सद्भूत उन-उन भावों के यथार्थ उपदेशक हैं और तीन जगत के भूषण रूप श्री अरिहंत परमात्मा को हे सुंदर मुनि! तूं शरण रूप में स्वीकार। और जो भव्य जीव रूपी कमलों के विकास के लिए चंद्रमा समान हैं, तीन लोक को प्रकाश करने में सूर्य समान हैं, संसार में भटकते दुःखी जीव समूह का विश्राम स्थान हैं, श्रेष्ठ चौतीस अतिशयों से समृद्धशाली हैं, अनंत बल वाले, अनंत वीर्य वाले और सत्त्व से युक्त हैं, भयंकर संसार समुद्र में डूबते जीव समूह को पार उतारने में जहाज समान हैं और विष्णु, महेश्वर, ब्रह्मा तथा इन्द्र को भी दुर्जय कामरूपी महाशत्रु के अहंकार को उतारने वाले श्री अरिहंत भगवंतों को, हे सुंदर मुनि! तूं शरण रूप में स्वीकार। 344 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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