Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 355
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार - चारुदत्त की कथा दिया । वह अंदर गिरा 'अब जीने की आशा नहीं है'। ऐसा सोचकर सागार अनशन करके श्री पंच परमेष्ठी का स्मरण करने लगा। उस समय उस वणिक् ने कहा कि-कल रस पीकर गोह गयी है यदि पुनः वह यहाँ आये तो तेरा निस्तारा हो जायगा । ऐसा सुनकर कुछ जीने की आशा वाला पंच नमस्कार मंत्र का जाप करने में तत्पर बना। अन्य दिन गोह वहाँ आयी और उस रस को पीकर निकल रही थी, उसी समय चारुदत्त ने जीने के लिए उसे पूँछ से दृढ़ पकड़ लिया, फिर उस गोह ने उसे बाहर निकाला। इससे अत्यंत प्रसन्न हुआ वह पुनः चलने लगा, और उसने महा मुश्किल से जंगल को पार किया । आगे प्रस्थान करते एक तुच्छ गाँव में उसको रुद्र नामक मामा का मित्र मिला। उसके साथ ही वह वहाँ से टंकण देश में पहुँचा। और वहाँ से दो बलवान बकरे लेकर दोनों सुवर्ण भूमि की ओर चले। दूर तक पहुँचने के बाद रुद्र ने चारुदत्त से कहा कि - हे भाई! यहाँ से आगे जा नहीं सकते, अतः इन बकरों को मारकर रोम का विभाग अंदर कर अर्थात् उसे उल्टा कर थैला बना दो और शस्त्र को लेकर उसमें बंद हो जाओ जिससे माँस की आशा से भारंड पक्षी उसे उठाकर सुवर्ण भूमि में रखेंगे इस तरह हम वहाँ पहुँच जायेंगे और अत्यधिक सोने को प्राप्त करेंगे। ऐसा सुनकर उसे करुणा उत्पन्न हुई और चारुदत्त ने कहा- नहीं, नहीं ऐसा नहीं बोल । हे भद्र! ऐसा पाप कौन करेगा? जीव हिंसा से मिलने वाला धन मेरे कुल में भी प्राप्त न हो । । ८१०० ।। रुद्र ने कहा- मैं अपने बकरे को अवश्यमेव मारूँगा । इसमें तुझे क्या होता है? इससे चारुदत्त उद्विग्न मन द्वारा मौन रहा। फिर अति निर्दय मन वाला रुद्र बकरे को मारने लगा, तब चारुदत्त ने बकरे के कान के पास बैठकर पाँच अणुव्रत का सारभूत श्री पंच परमेष्ठि नमस्कार मंत्र सुनाया और उसके श्रवण से शुभभाव द्वारा बकरे मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। फिर उस रुद्र ने शीघ्र उस चमड़े में चारुदत्त को बंधकर स्वयं दूसरे बकरे के चमड़े में प्रवेश किया। उसके बाद माँस के लोभ से भारंड पक्षियों ने दोनों को उठाया, परंतु जाते हुए पक्षियों के परस्पर युद्ध होने से चारुदत्त दो भारंड पक्षी के चोंच में से किसी तरह पानी के ऊपर गिरा और चमड़े को शस्त्र से चीरकर गर्भ से निकलता है वैसे बाहर निकला। इस तरह दुर्जन की संगति से उसे इस प्रकार संकट का सामना करना पड़ा। अब शिष्टजन संगत से जिस प्रकार उसने लक्ष्मी को प्राप्त की, इसका प्रबंध आगे है। फिर उस जल को पारकर वह नजदीक में रहे रत्नद्वीप में गया और उसे देखता हुआ पर्वत के शिखर पर चढ़ गया। वहाँ काउस्सग्ग में रहे अमितगति नामक चारण मुनि को देखा, और हर्ष से रोमांचित शरीरवाला बनकर उसने वंदना की। मुनि श्री ने काउस्सग्ग को पारकर धर्म लाभ देकर कहा कि - हे चारुदत्त ! तूं इस पर्वत पर किस तरह आया? हे महाशय ! क्यों तुझे याद नहीं ? कि पूर्व में चंपापुरी के वन में गया था। वहाँ तूंने जिस शत्रु के बंधन से मुझे छुड़ाया था । वही मैं कई दिनों तक विद्याधर की राज्य लक्ष्मी को भोगकर दीक्षा स्वीकार कर यहाँ आतापना ले रहा हूँ। जब अमितगति मुनि इस तरह बोल रहे थे, उस समय कामदेव के समान रूप वाले दो विद्याधर कुमार आकाश में से वहाँ नीचे उतरे। उन्होंने साधु को वंदन किया, और चारुदत्त के चरणों में गिरकर दो हस्तकमल को ललाट पर लगाकर जमीन पर बैठें। उस समय मणिमय मुकट धारण करनेवाले मस्तक को नाकर देव आया, उसने प्रथम चारुदत्त को और फिर मुनि को वंदन किया। इससे विस्मयपूर्वक विद्याधर ने देव से पूछा कि - अहो! तूंने साधु को छोड़कर प्रथम गृहस्थ के चरणों में क्यों नमस्कार किया? देव ने कहा कियह चारुदत्त मेरा धर्म गुरु है, क्योंकि जब मैं बकरा था तब मृत्यु के समय श्री पंच परमेष्ठि नमस्कार मंत्र को दिया था जिसके कारण अति दुर्लभ देव की लक्ष्मी प्राप्त करवायी है। इस चारुदत्त के द्वारा ही मैं मुनियों को तथा सर्वज्ञ परमात्मा को जानने वाला बना हूँ। फिर देव ने चारुदत्त को कहा कि - भो! अब आप वरदान मांगो। तब चारुदत्त 338 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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