Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 351
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार रहा, उसी तरह दुर्गंध में रहता है। काम से उन्मत पुरुष वेश्यागामी के समान अथवा निजपुत्री में आसक्त कुबेरदत्त सेठ के समान भोग्य - अभोग्य को नहीं जानता है। काम के आधीन हुआ कडार पिंग नामक पुरुष ने इस जन्म में भी महान् दुःखों को प्राप्त किया और पाप से बद्ध हुआ वह मरकर नरक में गया। ये सर्व दोष ब्रह्मचारी वैरागी पुरुष को नहीं होते हैं। परंतु इससे विपरीत विविध गुण होते हैं। स्त्री अपने वश हुए पुरुष के इस जन्म, परजन्म के सर्व गुणों का नाश करके दोनों जन्म में दुःख देने वाले दोष प्रकट करवाती है। टेढ़े मार्ग समान स्वभाव से ही वक्र स्त्री हमेशा उसे अनुकूल होने पर भी पुरुष को सन्मार्ग से भ्रष्ट करके विविध प्रकार से संसार में परिभ्रमण करवाती है। मार्ग की धूल के समान, स्वभाव से ही मलिन स्त्री, निर्मल प्रकृति वाले पुरुष को भी समय मिलने पर सर्व प्रकार से मलिन करती है । वास के जंगल के समान स्वभाव से दुर्गम मायावाली, दुष्टा स्त्री संतान फल प्राप्त करने पर भी अपने वंश का क्षय करती है। स्त्रियों में विश्वास, स्नेह, परिचय - आँखों में शरम, कृतज्ञता आदि गुण नहीं होते हैं क्योंकि अन्य पुरुष में रागवाली वह अपने कुल कुटुम्ब को शीघ्र छोड़ देती है। स्त्रियाँ पुरुष को क्षण में बिना प्रयास से विश्वास दिलाती है, जबकि पुरुष तो अनेक प्रकार से भी स्त्री को विश्वास नहीं दिला सकता है। स्त्री का अति अल्प भी अविनय होने पर लाखों सत्कार्य-उपकार का भी वह अपमान कर अपने पति, स्वजन, कुल और धन का नाश करती है। अथवा अपराध किये बिना भी अन्य पुरुष में आसक्त स्त्रियाँ, पति, पुत्र, श्वसुर और पिता का भी वध करती है। परपुरुष में आसक्त स्त्री सत्कार उपकार गुण, सुखपूर्वक लालन पालन, स्नेह और मधुर वचन कहे हों फिर भी सब को निष्फल करती है। जो पुरुष स्त्रियों में विश्वास करता है। वह चोर, अग्नि, शेर, जहर, समुद्र, मदोन्मत्त हाथी, काले सर्प और शत्रु में विश्वास करता है । अथवा जगत में शेर आदि तो पुरुष को इतने दोष के कारण नहीं होते कि उतने महादोष कारक दुष्टा स्त्री होती है ।। ८००० ।। कुलीन स्त्री को भी अपना पुरुष तब तक प्रिय होता है जब तक वह उस पुरुष को रोग, दरिद्रता अथवा बुढ़ापा नहीं आता। बुड्ढा, दरिद्र अथवा रोगी पति भी उसको पिली हुई ईंख समान अथवा मुरझाई हुई सुगंध रहित माला के समान दुर्गंध तुल्य अनादार पात्र बनता है। स्त्री अनादर करती हुई भी कपट से पुरुषों को ठगती है, और पुरुष उद्यम करने पर भी निश्चय रूप में स्त्री को ठग नहीं सकता । धूल से व्यास वायु के समान स्त्रियाँ पुरुष को अवश्य मलिन करती हैं और संध्याराग के समान केवल क्षणिक राग करती है। समुद्र में जितना पानी और तरंगें होती हैं तथा नदियों में जितनी रेती होती है उससे भी अधिक स्त्री के मन के अभिप्राय होते हैं। आकाश, सर्व भूमि, समुद्र, मेरुपर्वत और वायु आदि दुर्जय पदार्थों को पुरुष जान सकता है, परंतु स्त्रियों के भावों को किसी तरह भी नहीं जान सकता। जैसे बिजली पानी का बुलबुला और आकाश में प्रकट हुआ ज्वाला रहित अग्नि का प्रकाश चिरस्थिर नहीं रहता है वैसे स्त्रियों का चित्त एक पुरुष में चिरकाल तक प्रसन्न नहीं रहता । परमाणु भी किसी समय मनुष्य के हाथ में आ सकता है, परंतु निश्चय में स्त्रियों का अति सूक्ष्म विचार पकड़ने में वह शक्तिमान नहीं है। क्रोधायमान भयंकर काले सर्प, दुष्ट सिंह और मदोन्मत्त हाथी को भी पुरुष किसी तरह वश कर सकता है, परंतु दुष्ट स्त्रियों के चित्त को वश नहीं कर सकता। कई बार पानी में भी पत्थर तैरता, और अग्नि भी न जलाकर, उल्टा हिम के समान शीतल बन जाती है, परंतु स्त्रियों को कभी भी पुरुष के प्रति ऋजुता - सरलता नहीं होती। सरलता के अभाव में उनमें विश्वास किस तरह हो सकता है? और विश्वास बिना स्त्रियों में प्रीति कैसे हो सकती है ? पुरुष दो भुजाओं द्वारा तैरकर समुद्र को भी पार उतर जाते हैं, किंतु माया रूपी जल से भरी हुई स्त्री रूपी समुद्र को पार 1. ललितांग कुमार की कथा है। 334 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.

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