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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-पंच नमस्कार नामक आठवाँ द्वार होता । परमेष्ठी को भक्तिपूर्वक नमस्कार करने से इस लोक और परलोक में सुखकर होता है तथा यह मंत्र इस लोक, परलोक के दुःखों को चूरण करने में समर्थ है। अधिक क्या कहें? निश्चय जीवों को जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है कि जो इस मंत्र की भक्ति और नमस्कार से प्राप्ति में समर्थ न हो।
यदि परम दुर्लभ परमपद मोक्ष सुख भी इस नमस्कार मंत्र से प्राप्त करता है, तो उसके साथ अर्थात् अनाज के साथ घास के समान आनुषंगिक फल सिद्ध होते हैं, इसके बिना अन्य सुख की कौन-सी गिनती है ? जिसने मोक्ष नगर को प्राप्त किया है या प्राप्त करेंगे अथवा वर्तमान काल में प्राप्त करते हैं वह श्री पंच नमस्कार के गुप्त महा सामर्थ्य का योग समझना । दीर्घकाल तप किया हो, चारित्र का पालन किया हो और अति श्रुत का अभ्यास किया हो, फिर भी यदि नमस्कार मंत्र में प्रीति नहीं है तो वह सब निष्फल जानना । । ७७०० ।। 1 चतुरंग सेना का नायक सेनापति जैसे सेना का दीपक रूप प्रकाशमान है वैसे दर्शन, तप, ज्ञान और चारित्र का नायक यह भाव नमस्कार उन गुणों का दीपक समान है। इस जीव ने भूतकाल में भाव नमस्कार बिना निष्फल द्रव्य लिंग (वेश से चारित्र) को अनंत बार स्वीकार किया और छोड़ दिया। इस तरह जानकर हे सुंदर मुनि! आराधना में लगे मन वाला तूं भी प्रयत्नपूर्वक शुभ भावना से इस नमस्कार मंत्र को मन में धारण कर । हे देवानुप्रिय ! तुझे बार-बार इस विषय में सूचित करता हूँ कि -संसार समुद्र को पार उतरने के लिए पुल समान नमस्कार मंत्र धारण करने में शिथिल मत होना। क्योंकि जन्म, जरा और मरण से भयंकर संसार रूपी अरण्य में इस नमस्कार मंत्र को मंद पुण्य वाले प्राप्त नहीं कर सकते हैं। राधा वेध का भी स्पष्ट भेदन हो सकता है, पर्वत को भी मूल से उखड़ सकते हैं और आकाश तल में चल सकते, उड़ सकते हैं, परंतु महामंत्र नमस्कार को प्राप्त करना दुर्लभ है। बुद्धशालीको अन्य सब विषयों में भी शरणभूत होने से इस नमस्कार मंत्र का स्मरण करना चाहिए। और अंतिम समय की आराधना के समय में तो सविशेष स्मरण करना चाहिए यह नमस्कार मंत्र आराधना में विजय ध्वज को ग्रहण करने के लिए हाथ है, स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग है तथा दुर्गति के द्वार को बंध करने के लिए अर्गला है। अन्य दिन में भी हमेशा इस नवकार मंत्र को पढ़ना, गिनना, (जपना) और सुनना चाहिए तथा सम्यग् अनुप्रेक्षा करनी चाहिए तो फिर मृत्यु समय में पूछना ही क्या ?
जब घर जलता है, तब उसका मालिक अन्य सब छोड़कर आपत्ति से पार उतारने में समर्थ एक ही अमूल्य कीमती रत्न को लेता है, अथवा जैसे युद्ध के भय में सुभट भृकुटी चढ़ाकर वैरी सुभट से रणभूमि में विजय प्राप्त करने में समर्थ एक अमोघ शस्त्र को ग्रहण करता है, वैसे जब अत्यंत अस्वस्थता या अंतिम अवस्था
बारह प्रकार के सर्व श्रुतस्कंध ( द्वादशांगी) का सम्यक् चिंतन करने में एकाग्रता की शक्ति वाला नहीं होता है तब उस द्वादशांगी को भी छोड़कर मृत्यु के समय में निश्चय ही वह श्री पंच नमस्कार का ही सम्यक् चिंतन करता हैं, क्योंकि वह द्वादशांगी का रहस्यभूत है । सर्व द्वादशांगी परिणाम विशुद्ध का ही हेतुमात्र है, वह नमस्कार मंत्र परिणाम विशुद्ध होने से नमस्कार मंत्र द्वादशांगी का सारभूत कैसे नहीं हो सकता है? अर्थात् द्वादशांगी का सारभूत नमस्कार है। इसलिए विशुद्ध शुभ लेश्या वाला आत्मा अपने को कृतार्थ मानता, उसमें ही स्थिर चित्तवाला बनकर उस नमस्कार मंत्र का बार-बार सम्यक् स्मरण करता है। वैसे सुभट युद्ध में जय पताका की इच्छा करता है, वैसे अवश्य मृत्यु के समय मोह की जय पताका रूप कान को अमृत तुल्य नमस्कार को कौन बुद्धिमान स्वीकार न करें? जैसे वायु जल के बादल को बिखेर देता है वैसे प्रकृष्ट भाव से परमेष्ठियों को एक बार भी नमस्कार करने से सारे दुःख के समूह नष्ट हो जाते हैं। संविज्ञ मन द्वारा, वचन द्वारा अस्खलित स्पष्ट मनोहर
1. सुचिरं पि तवो तवियं चिन्नं चरणं सुयं च बहु पढियं । जइ ता न नमोक्कारे, रई तओ तं गयं विहलं ||७७००||
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