________________
श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-पाँचवा प्रतिबंध त्याग द्वार
इस तरह अनुशास्ति द्वार में विस्तृत अर्थ सहित और भेद प्रभेद सहित प्रमाद निग्रह नाम का चौथा अंतर द्वार कहा है। अब प्रमाद के निग्रह में निमित्त भूत सर्व प्रतिबंध त्याग नाम का पाँचवां अंतर द्वार संक्षेप से कहते
पाँचवां प्रतिबंध त्याग द्वार :
श्री जिनवचन के जानकार ने प्रतिबंध को आसक्ति रूप कहा है, वह प्रतिबंध-आसक्ति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रित चार प्रकार का कहा है। उसमें यहाँ सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य तीन प्रकार का है। और उस प्रत्येक द्रव्य के, द्विपद, चतुष्पद और अपद इस तरह तीन-तीन भेद हैं ।।७५०० ।। इस तरह विषय के भेद से उस भेद के ज्ञाता शास्त्रज्ञों ने संक्षेप से द्रव्य प्रतिबंध ३४३=९ प्रकार का कहा है। पहले भेद के अंदर पुरुष, स्त्री, तोता आदि, दूसरे में घोड़ा, हाथी आदि, और तीसरे में पुष्प, फल आदि इस तरह ये सचित्त द्रव्य के भेद जानना। चौथे भेद में गाड़ी, रथ आदि, पाँचवें में पट्टा, पलंग, चौकी आदि और छटे में सुवर्ण आदि ये अचित्त द्रव्य के भेद जानना। सातवें भेद में आभूषण, वस्त्र, सहित पुरुष आदि, आठवें में अम्बाड़ी आभूषण आदि सहित हाथी, घोड़े आदि तथा नौवें भेद में पुष्पमाला आदि मिश्रित द्रव्यगत पदार्थ जानना। और गाँव, नगर, घर, दुकान आदि में जो प्रतिबंध है वह क्षेत्र प्रतिबंध है तथा वसंत, शरद, आदि ऋतु में या दिन, रात्री में जो आसक्ति वह काल प्रतिबंध जानना। एवं संदर शब्द, रूप आदि में आसक्ति अथवा क्रोध मान आदि का जो हमेशा त्याग नहीं करता उसे भाव प्रतिबंध जानना। ये सर्व प्रकार से प्रतिबंध कर्ता हो तो परिणाम से कठोर दीर्घकाल तक के दुःखों को देने वाला है, ऐसा श्री जिनेश्वर द्वारा कथित शास्त्र में सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों ने देखा है। और जितने प्रमाण में यह प्रतिबंध हो उतने दुःख उन जीवों को होते हैं। इसलिए इसका सर्वथा त्याग करना श्रेष्ठ है। इसका त्याग नहीं करने से अनर्थ की परंपरा का त्याग नहीं होता और यदि इस प्रतिबंध का त्याग करता है तो वह अनर्थ की परंपरा का भी अत्यंत त्याग करता है। हा! प्रतिबंध भी कर सकता है यदि उसके विषयभूत वस्तुओं में कुछ भी श्रेष्ठता हो तो यदि उसमें श्रेष्ठता नहीं है तो उस में प्रतिबंध करने से क्या प्रयोजन है? संसार में उत्पन्न होती वस्तुएँ, जो क्षण-क्षण में नाशवंत हैं, स्वभाव से ही असार है और स्वभाव से ही तुच्छ है, तो उसमें क्या अच्छाई कहना? क्योंकि काया हाथी के कान समान चंचल है, रूप भी क्षण विनश्वर स्वरूप है, यौवन भी परिमित काल का है, लावण्य परिणाम से कुरूपता को देने वाला है। सौभाग्य भी निश्चय नाश होता है, इन्द्रियाँ भी विकलता को प्राप्त करती हैं। सरसों के दाने जितना सुख प्राप्त कर मेरु पर्वत जितना कठोर दुःखों के समूह से घिरा जाता है, बल चपलता को प्राप्त कर नष्ट हो जाता है यह जीवन भी जल कल्लोल समान क्षणिक है, प्रेम स्वप्न सामान मिथ्या है, और लक्ष्मी छाया समान है। भोग इन्द्र धनुष्य समान चपल है, सारे संयोग अग्नि शिखा समान है और अन्य भी कोई वस्तु ऐसी नहीं है कि जो स्वभाव से शाश्वत हो।
इस तरह सारी संसार जन्य वस्तुओं में सुख के लिए प्रतिबंध करता है तो हे सुंदर! वह अंत में दुःख रूप बनेगा। और तूं निश्चय स्वजनों के साथ जन्मा नहीं है, और उसके साथ मरनेवाला भी नहीं है, तो हे सुंदर! उनके साथ भी प्रतिबंध करने से क्या लाभ है? यदि संसार समुद्र में जीव कर्मरूपी बड़ी-बड़ी तरंगों के वेग से इधर उधर भटकते संयोग-वियोग को प्राप्त करता है, तो कौन किसका स्वजन है? बार-बार जन्म, मरण रूप इस संसार में चिर काल से भ्रमण करते कोई ऐसा जीव नहीं है कि जो परस्पर अनेक बार स्वजन नहीं हुए हों? जिसे छोड़कर जाना है वह वस्तु आत्मीय कैसे बन सकती है? ऐसा विचारकर ज्ञानी शरीर में प्रतिबंध का त्याग करते हैं। विविध उपचार-सेवा करने पर भी चिरकाल तक संभालकर रखे शरीर का भी यदि अंत में नाश दिखता है
314
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org