Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 334
________________ समाधि लाभ द्वार-श्री अरिहंतादि छह की भक्ति नामक सातवाँ द्वार एवं कनवरध की कथा 'श्री संवेगरंगशाला श्री अरिहंतादि छह की भक्ति नामक सातवाँ द्वार : श्री अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, आचार्य, उपाध्याय और साधु। ये छह को मोक्ष नगर के मार्ग में सार्थवाह(मददगार) रूप मानकर, हे क्षपक मुनि! प्रस्तुत अर्थ-आराधना की निर्विघ्न सिद्धि के लिए उनको हर्ष की उत्कंठा से विकसित तेरे हृदय कमल में भक्तिपूर्वक सम्यग् रूप से धारण कर। केवल एक श्री जिन भक्ति भी दुर्गति को रोककर दुर्लभ मुक्ति पर्यंत के सुखों को उत्तरोत्तर प्राप्त कराने में समर्थ है, फिर भी परमैश्वर्य वाले श्री सिद्ध, परमात्मा, चैत्य, आचार्य, उपाध्याय, साधु की भक्ति संसार के कंद का निकंदन करने में समर्थ कैसे न हो? सामान्य विद्या भी उनकी भक्ति से ही सिद्ध होती है और सफल बनती है तो निर्वाण-मोक्ष की विद्या क्या उनकी भक्ति करने से सिद्ध नहीं होगी? आराधना करने योग्य उनकी भक्ति जो मनुष्य नहीं करता वह ऊस भूमि में बोये अनाज के समान संयम को निष्फल करता है। आराधक भक्ति बिना जो आराधना की इच्छा करता है वह बीज बिना अनाज की और बादल बिना वर्षा की इच्छा करता है। विधिपूर्वक बोया हुआ भी अनाज जैसे वर्षा से उगने वाला होता है, वैसे तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणों को आराधक परमात्मा की भक्ति से सफल करता है। श्री अरिहंतादि की एक-एक की भी भक्ति करने से सुख की परंपरा को अवश्य प्रकट करता है। इस विषय पर कनकरथ राजा दृष्टांत रूप है ।।७५६९।। वह इस प्रकार है : श्री अरिहंत की भक्ति पर कनकरथ राजा की कथा जिस नगर में उत्तम पति के द्वारा रक्षण की हुई सुंदर लंबी नेत्रों वाली और उत्तम पुत्र वाली स्त्रियाँ जैसे शोभती थीं वैसे राजा से सुरक्षित उत्तम गली बाजार युक्त मिथिला नगरी थी। उसमें कनकरथ नाम का राजा राज्य करता था। सूर्य के समान जिसके प्रताप के विस्तार से शत्रु के समूह का पराभव होता था, सूर्य के तेज से रात्री विकासी कमल का खण्ड जैसे शोभारहित और संकुचित-दुर्बल बन जाय वैसे शोभारहित और दीन वे शत्र बन गये थे। याचक अथवा स्नेही वर्ग को संतोष देनेवाला और परंपरा के वैर का त्याग करने वाला नीति प्रधान राज्य के सुख को भोगता हुआ रत्नों से प्रकाशमान सिंहासन पर बैठा था। उस समय पर एक संधिपालक ने पूर्ण रूप से मस्तक नमाकर विनती की कि-हे देव! यह आश्चर्य है कि सूर्य को अंधकार जीते और सिंह के बच्चे की केसरा को मृग तोड दे, वैसे चिरकाल से भेजी हुई आपकी महान् चतुरंग सेना को उत्तर दिशा का स्वामी महेन्द्र राजा भगा रहा है। उनकी प्रवृत्ति जानने के लिए नियुक्त किये गुप्तचरों ने आकर अभी ही मुझे युद्ध का वृत्तांत यथास्थित कहा है। वहाँ जो कलिंग देश का राजा आपका प्रसाद पात्र था वह निर्लज्ज शत्रु के साथ मिल गया है। दाक्षिण्य रहित कुरुदेश का राजा भी आपके सेनापति के प्रति द्वेष दोष से उसी समय युद्ध में से वापस आ गया है। दूसरे भी काल कुंजर, श्री शेखर, शंकर आदि सामंत राजा सेना को बिखरते देखकर युद्ध से पीछे हट गये हैं और इस तरह मदोन्मत्त हाथियों की सूंढ से श्रेष्ठ रथों का समूह नष्ट हो रहा है। रथों के समूह के चूर होने से घोड़े जहाँ तहाँ भागते जन समह को गिरा रहे हैं। जनसमह गिरने से मार्ग दर्गम बन गया है। इससे व्याकल शरवीर सभट इधर-उधर भाग रहे हैं। शूरवीर सुभटों का परस्पर भागने से सेना-समूह वहाँ व्याकुल हो रहा है और सेना के लोगों की पुकार-शब्द से कायर लोगों का समूह भाग रहा है, इस तरह मारे गये योद्धायुक्त तुम्हारी सेना को शत्रु ने यम के घर पहुँचा दिया है। यह सुनकर ललाट पर भयंकर भृकुटी चढ़ाकर राजा ने प्रस्थान करने वाली महा आवाज करने वाली भेरी को बजवाई। फिर उस भेरी का बादल के समूह के आवाज समान महान् व्यापक नाद से प्रस्थान का कारण 317 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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