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परिकर्म द्वार- साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान
श्री संवेगरंगशाला के रहस्यार्थवाला, अथवा अन्य भी जो शास्त्र श्री जिनशासन की महा उन्नति करनेवाला और महागूढ़ अर्थवाला हो, उसे नाश होते स्वयं देखें अथवा दूसरे के मुख से सुनें । परन्तु उसे लिखने में स्वयं असमर्थ हो, दूसरा भी उसे लिखाने में कोई नहीं हो तो ज्ञान की वृद्धि के लिए उसे साधारण द्रव्य से भी लिखाना चाहिए। तीन या चार लाइन से ताडपत्र के ऊपर अथवा बहुत लाइन से कागज के ऊपर विधिपूर्वक लिखवाकर उन पुस्तकों को, जहाँ अच्छा बुद्धिमान संघ हो, ऐसे स्थान पर रखना चाहिए। तथा जो पढ़ने में एवं याद रखने में समर्थ प्रभावशाली, भाषा में कुशल प्रतिभा आदि गुणों वाले मुनिराज हों, उन्हें विधिपूर्वक अर्पण करें और आहार, वसती, वस्त्र आदि का दान देकर शासन प्रभावना के लिए उसकी वाचना विधि करें, अर्थात् श्रेष्ठ मुनियों से पढ़ाए और स्वयं सुनें । इस तरह आगम का उद्धार करने वाले तत्त्व से, मिथ्या दर्शन वालों से, शासन को पराभव होते रोक सकते हैं। नया धर्म प्राप्त करने वाले को धर्म में स्थिरता प्राप्त करवाकर, चारित्र गुण की विशुद्धि का लाभ मिलता है। इस तरह श्री जिनशासन की रक्षा की, भव्य प्राणियों की अनुकम्पा भक्ति की, और जीवों को अभयदान दिया। अर्थात् जो-जो उपकार होता है वह सर्व शास्त्रों से ही होता है, ऐसा मानना चाहिए। अतः इस कार्य में शक्ति अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए। इस तरह पुस्तक द्वार पूर्ण हुआ। अब साधु-साध्वी द्वार को कहते हैं
५. साधु द्वार :
इसमें मुनि पुंगव को संयम के लिए वस्त्र, आसन, पात्र, औषध, भेषज आदि भी उत्सर्ग मार्ग में सचित्त का अचित्त करना, खरीद करना या पकवाना। ये तीनों क्रिया साधु के लिए करना, करवाना या अनुमोदन नहीं किया हो, ऐसा नौ कोटि विशुद्ध देना चाहिए। क्योंकि - जो संयम की पुष्टि के लिए ही साधु को दान देता है तो इस तरह उनके लिए पृथ्वीकायादि की हिंसा करना वह कैसे योग्य गिना जाय ? यति दिनचर्या में कहा है किसंयम निर्वाह में रुकावट न आती हो, ऐसे समय में अशुद्ध दोषित वस्तु का दान रोगी और वैद्य के समान लेने वाला और देने वाला दोनों के लिए अहितकर है। और संयम निर्वाह नहीं होता हो तब वही वस्तु लेने वाला, देने वाला दोनों को हितकर है। परंतु जब उपधि वस्त्रादि को चोर चोरी कर गया हो, अति गाढ़ बिमारी या दुष्काल हो इत्यादि अन्य भी अपवाद समय पर सर्व प्रयत्न करने पर भी यदि निर्दोष वस्त्र, आसन आदि की और औषध, भेषज आदि की प्राप्ति नहीं होती हो तो अपने या दूसरे के धन की शक्ति से साधु के लिए खरीद करना अथवा तैयार किया आदि दोषित भी दे और दूसरा भी वैसी शक्ति सम्पन्न न हो तो ऐसे समय पर वह साधारण द्रव्य से भी सम्यग् रूप से लाकर दे और दोषित छोड़ने वाले साधु भी उसे अनादर से स्वीकार करें। क्योंकि -मुनियों को संयम निर्वाह शक्य हो तब उत्सर्ग से जो द्रव्य लेने का निषेध है, वह सर्व द्रव्य भी किसी अपवाद के कारण लेना कल्पता है। यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि - 'जिसको पूर्व में निषेध किया, उसी को ही पुनः वही कल्पता है?' ऐसा कहने से तो अनवस्था दोष लगता है और इससे नहीं तीर्थ रहेगा, या न तो सत्य रहेगा। यह दर्शन शास्त्र तो निश्चय उन्मत्त वचन समान माना जायगा । अकल्पनीय हो वह कल्पनीय नहीं हो सकता है, फिर भी यदि इस तरह से तुम्हारी सिद्धि होती हो तो ऐसी सिद्धि किसको नहीं हो? अर्थात् सर्व को सिद्धि हो जाये ।
इसके उत्तर में आचार्यश्री कहते हैं कि - श्री जिनेश्वर भगवान ने अब्रह्म बिना एकान्त से कोई आज्ञा नहीं दी है और एकान्त से कोई निषेध नहीं किया है। उनकी आज्ञा यह है कि- प्रत्येक कार्य में सत्यता का पालन करना, माया नहीं करनी । और रोगी को औषध के समान जिससे दोषों को रोग को रोक सकता है। और जिससे पूर्व कर्मों का क्षय होता है वह उस मोक्ष ( आरोग्यता) का उपाय जानना ! उत्सर्ग सरल राजमार्ग है और अपवाद उसका ही प्रतिपक्षी है। उत्सर्ग से जो सिद्ध नहीं हो उसे अपवाद मार्ग सहायता देकर स्थिर करता है। अर्थात् जो
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