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परिकर्म विधि द्वार-त्याग नामक दसवाँ प्रतिद्धार-सहसमल्ल की कथा
श्री संवेगरंगशाला
समान तीक्ष्ण धार वाली अपनी तलवार को घुमाता हुआ, अंग रक्षकों के समूह शस्त्र प्रहारों को कुछ भी नहीं गिनते और सभा सदस्यों का भेदन कर. युद्ध के सतत अभ्यास से लड़ने में शरवीर वह शीघ्र कालसेन के पास जाकर और केश से पकड़कर बोला-अरे रे! हताशपुरुषों! यदि अब इसके बाद मेरे ऊपर कोइ शस्त्र को चलायेगा तो तुम्हारा यह स्वामी निश्चित काल का कौर बनेगा। फिर 'जो इस वीरसेन को प्रहार करेगा वह मेरे जीव के ऊपर प्रहार करता है।' ऐसा कहते कालसेन ने वीरसेन पर प्रहार करते पुरुषों को रोका।
इधर उस समय में ही उसके गुण से प्रसन्न हुआ कनककेतु के कहने से हाथी, घोड़े, रथ और योद्धाओं से संपूर्ण चतुरंग सेना उसके पीछे आ पहुँची, तब व्याकुलता रहित शरीर वाला और भक्ति के समूह से भरे मनवाले वीरसेन ने उस कालसेन को ठगकर कनककेतु को सौंप दिया। राजा ने प्रसन्न होकर उसे आदरपूर्वक हजार गाँव दिये और राजा ने स्वयं उसका नाम सहस्रमल्ल रखा। फिर संधि करके हर्षित मनवाले राजा ने सत्कार करके मंडपाधिपति कालसेन को भी उसके स्थान पर भेज दिया। एक समय कालक्रम से सहस्रमल्ल ने वहाँ उद्यान में सुदर्शन नाम के श्रेष्ठ आचार्य श्री को बैठे हुए देखा और भक्तिपूर्वक नमस्कार कर, मस्तक द्वारा उनके चरणों को वंदना कर जैनधर्म को सुनने की इच्छावाला वह भूमि के ऊपर बैठा। गुरुदेव ने भी संसार की असारता के उपदेश रूपी मुख्य गुणवाला और निर्वाण की प्राप्ति रूप फलवाला श्री जिन कथित धर्म कहा और उसको सुनने से अंतर में अति श्रेष्ठ वैराग्य उत्पन्न हुआ। राजा वीरसेन पुनः गुरु के चरणों को नमन करके बोलने लगा कि-हे भगवंत! तप-चारित्र से रहित और अत्यंत मोह मूढ़ संसार समुद्र में पड़े जीवों के परभव में सहायक एक निर्मल धर्म को छोड़कर कामभोग से अथवा धन स्वजनादि से थोड़ी भी सहायता नहीं मिलती है। इसलिए यदि आपको मेरी कोई भी योग्यता दिखती हो तो शीघ्र मुझे दीक्षा दो। परिणाम से भयंकर घरवास में रहने से क्या प्रयोजन है? उसके बाद गुरु महाराज ने ज्ञान के उपयोग से उसकी योग्यता जानकर असंख्य दुःखों के समूह को क्षय करने वाली श्री भागवती दीक्षा दी। उसके बाद थोड़े दिनों में अनेक सूत्रार्थ का अध्ययनकर वह साधुजन के योग्य श्रेष्ठ क्रिया कलाप के परमार्थ का जानकार बना। फिर कालक्रम से शरीरादि के राग का अत्यंत त्यागी, दृढ़ वैरागी और बाह्य सुख की इच्छा से रहित उसने जिनकल्प स्वीकार किया। फिर जहाँ सूर्यास्त हो, वहीं कायोत्सर्ग में रहता, श्मशान, शून्य घर या अरण्य में रहते वायु के समान अप्रतिबद्ध और अनियत विहार से विचरण करते वह महान-आत्मा जहाँ शनिग्रह के सदृश स्वभाव से ही क्रूर और चिर वैरी कालसेन रहता था उस मंडप में पहुँचा। वहाँ बाहर काउस्सग्ग में रहा। उसे पापी कालसेन ने वहाँ आकर देखा। इससे अपने पुरुषों से कहा किअरे! यह वह मेरा शत्रु है कि उस समय इसने अकेले ही लीलामात्र में मुझे बाँधा था, इसलिए अभी यह जहाँ तक शस्त्र रहित है, वहाँ तक सहसा उसके पुरुषार्थ के अभिमान को नाश करो।।
यह सुनकर क्रोध के वश फड़फड़ाते होंठ वाले उन पुरुषों द्वारा विविध शस्त्रों से प्रहार सहन करते वे मुनि विचार करने लगे कि हे जीव! मारने के लिए उद्यत हुए इन अज्ञानी पुरुषों के प्रति किसी तरह अल्प भी द्वेष मत करना, क्योंकि 'सर्व-प्राणी वर्ग अपने पूर्वकृत कर्मों के विपाक रूप फल को प्राप्त करता है, अपकारों में या उपकारों में दूसरा तो केवल निमित्त मात्र होता है।' हे जीवात्मा! यदि फिर भी तुझे तीक्ष्ण दुःखों की परंपरा को सहन करनी है, तो सद्ज्ञान, रूप, मित्र आदि से युक्त तुझे अभी ही सहन करना श्रेष्ठ है। यदि! ब्रह्मदत्त नामक बलवान चक्रवर्ती को भी केवल एक पशुपालक गड़रिये ने नेत्र फोड़कर दुःख दिया था। यदि तीन लोकरूपी रंग मंडप में असाधारण मल्ल प्रभु श्री महावीर परमात्मा ने अरिहंत होते हुए भी अति घोर उपसर्गों की परंपरा प्राप्त की थी, अथवा यदि श्रीकृष्ण वासुदेव की स्वजनों का नाश और पैर बिंधना तक के अति दुःसह तीक्ष्ण दुःखों
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