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श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-जातिमद द्वार-ब्राह्मण पुत्र का दृष्टांत छोड़कर अपने को और पर को क्लेश की चिंता में डालता है? जीव-दया करने से धर्म और उसका फल मोक्ष है, परंतु किसने देखकर कहा है कि जिससे इस तरह कष्ट सहन करते हो? अतः मेरे साथ चलो, इस वन की शोभा देखो, पाखण्ड को छोड़कर, महल में रहकर स्वेच्छानुसार स्त्रियों के साथ विलास करो।'
इस तरह अयोग्य वचनों द्वारा अपने साथ रहे परिवार को हँसाते उसने मनि को हाथ से पकडकर वहाँ से घर की ओर ले जाने लगा। उस समय मुनि के हास्य से क्रोधित हुई वनदेवी ने उसे काष्ठ समान बेहोश कर पृथ्वी पर गिरा दिया। मुनि अल्प भी प्रद्वेष किये बिना स्वकर्त्तव्य में स्थिर रहे, और सुलस की ऐसी अवस्था देखकर मित्र वर्ग उसे घर ले गये, और यह सारा वृत्तांत उसके पिता से कहा। दुःख से पीड़ित पिता ने उसकी शांति के लिए देवपूजा आदि विविध उपाय किये। फिर भी उसको अल्प भी शांति नहीं हुई। इससे उसे लाकर मुनि के पास रखा, वहाँ कुछ स्वस्थ हुआ। तब उसके पिता ने मुनि श्री से कहा कि-हे भगवंत! आपका अपमान करने का फल इसने प्राप्त किया है, अतः आप कृपा करे और मेरे पुत्र का दोष दूर कर दे। इत्यादि नाना प्रकार से पुरोहित ने कहा, तब देवी ने कहा कि-अरे! म्लेच्छ तुल्य! तूं स्वच्छंदता पूर्वक बहुत क्या बोलता है? यदि यह तेरा दुष्ट पुत्र सदा मुनि के पास दास के समान प्रवृत्ति करेगा तो स्वस्थता को प्राप्त करेगा, अन्यथा जीता नहीं रहेगा। अतः किसी तरह भी यदि जीता रहेगा तो मैं देख सकूँगा। इस तरह चिंतनकर उसके पिता ने उसे मुनि को सौंपा। उस मुनि ने भी इस तरह कहा कि- 'साधु असंयमी गृहस्थ को स्वीकार नहीं करते हैं।' इसलिए यदि दीक्षा को स्वीकार करे तो यह मेरे पास रहे। मुनि के ऐसा कहने पर पुरोहित ने पुत्र से कहा कि-हे वत्स! यद्यपि तेरे सामने इस तरह कहना योग्य नहीं है, फिर भी तेरे जीवन में दूसरा उपाय कोई नहीं है, इसलिए इस साधु के पास दीक्षा को स्वीकार कर। हे पत्र! धर्म के आचरण करते तेरा अहित नहीं होगा. क्योंकि मन वांछित की प्राप्ति कराने में समर्थ धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। फिर मृत्यु होने के अति कठोर संताप से दीन मुख वचन वाले सुलस ने अनिच्छा से भी पिता के वचन को मान दिया और मुनि ने उसे दीक्षा दी। सर्व कर्त्तव्य की विधि की शिक्षा दी और उचित समय में शास्त्रार्थ का विस्तारपूर्वक अध्ययन करवाया, फिर केवल मृत्यु के भय से दीक्षा लेने वाला भी वह विविध सूत्र-अर्थ का परावर्तन करते जैन धर्म में स्थिर हुआ और विनय करने में रक्त बना।
परंतु मद के अशुभ फल को जानते हुए भी वह जातिमद को नहीं छोड़ता था, आखिर में उसकी आलोचना किये बिना आयुष्य पूर्ण किया और सौधर्म देवलोक में देव हुआ। वहाँ आयुष्य का क्षय होते ही वहाँ से च्यवन हो कर जातिमद के दोष से नंदीवर्धन नगर में चण्डाल पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, पूर्व जन्म में किये अल्प सुकृत्य के योग से वह रूपवान और सौभाग्यशाली हुआ और क्रमशः उसने मानवों के मन और आँखों को आनंदप्रद यौवनवय को प्राप्त किया। विलास करते नागरिकों को देखकर वह इस तरह विचार करता है किशिष्टजनों के निंदा पात्र मेरे जीवन को धिक्कार हो! कि जिस चंडाल की संगत से मेरी यह श्रेष्ठ यौवन लक्ष्मी भी शोभा रहित बनी और अरण्य की कमलिनी के समान उत्तम पुरुषों को सुख देने वाली नहीं बनी। हे हत विधाता! यदि तूंने मेरा जन्म निंदित कुल में दिया तो निश्चय निष्फल रूपादि गुण किसलिए दिया? अथवा ऐसे निरर्थक खेद करने से भी क्या लाभ? उस देश में जाऊँ कि जहाँ मेरी जाति को कोई मनुष्य नहीं जानें। इस तरह विचारकर अपने स्वजन और मित्रों को कहे बिना, कोई भी नहीं जानें इस तरह वह अपनी नगरी से निकल गया ।।६६००।। और चलते हुए अति दूर प्रदेश में रहे कुंडिननगर में वह पहुँचा। वहाँ राजा के ब्राह्मण मंत्री की सेवा करने लगा, अपने गुणों से मंत्री की परम प्रसन्नता का पात्र बना और निःशंकता से पाँच प्रकार के विषय सुख को भोगने लगा।
एक समय संगीत में अति कुशल उसके मित्र श्रावस्ती से घूमते हुए वहाँ आये और मंत्री के सामने गीत 278
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