Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 293
________________ श्री संदेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-जातिमद द्वार जानते कि उसका कितना अधिक हित होता? इस प्रकार जानकर हे वत्स! विवेकरूपी अमृत का पान करके तूं मन रूपी शरीर में व्याप्त हुए इस मिथ्यात्व रूपी जहर का सर्वथा वमन कर! तथा मिथ्यात्व के जहर से मुक्त और उसके सर्व विकार से रहित, स्वस्थ बना हुआ तूं प्रस्तुत आराधना को सम्यग् रूप में प्राप्त कर। इस तरह यह मिथ्या दर्शन शल्य को कहा है और उसे कहने से सभी अठारह पाप स्थानक कहे हैं। ये पाप स्थानक में एकएक भी पाप महादुःखदायी है तो वे सभी का समूह तो जो दुःखदायी बनता है उसमें क्या कहना? इस लोक के सुख में आसक्त जीव, जीव की हिंसा करने से, दूसरों को कठोर आदि झूठ बोलकर, दूसरे के धन को हरण कर, मनुष्य देव और तिर्यंच की स्त्रियों के विषय की अति आसक्ति द्वारा, नित्य अपरिमित विविध परिग्रह का आरंभ करने से, विरोधजनक क्रोध द्वारा, तथा दुःख के कारण मान द्वारा, स्पष्ट अपायरूप माया द्वारा, सुख अथवा शोभा का नाश करने वाले लोभ द्वारा, उत्तम मुनियों के द्वारा छोड़े हुए दुष्ट राग द्वारा, कुगति पोषक द्वेष द्वारा, स्नेह के शत्रु कलह द्वारा, खल नीच अभ्याख्यान द्वारा, संसार की प्राप्ति कराने वाली अरति रति द्वारा, अपयश के महान प्रवाह रूप पर निंदा द्वारा, नीच अधम पुरुषों के मन को प्रसन्न करने वाला माया मृषावाद द्वारा और अत्यंत संकलेश से प्रकट हआ. शद्ध मार्ग में विघ्न करने वाला महासभट रूप मल्ल के समान मिथ्या दर्शन शल्य द्वारा परलोक की चिंता, भय से रहित, मूढ़ात्मा अपने सुख के लिए मन, वचन और काया से कठोर पाप के समूह को उपार्जन करता है। इससे चौरासी लाख योनि से व्याप्त अनादि भवसागर में बार-बार जन्म-मरण करते चिरकाल तक परिभ्रमण करता है और जो मूढ़ात्मा अपने में अथवा दूसरे में भी इन पाप स्थानों को उत्पन्न करता है और उससे उसे जो कर्म का बंध होता है उससे वह भी लिप्त होता है। इसलिए हे देवानुप्रिय! इसे जानकर प्रयत्नशील तूं उन पापस्थानकों से शीघ्र रूककर उसके प्रतिपक्ष में अर्थात् अहिंसा सत्यादि में उद्यम कर। इस तरह अनुशास्ति द्वार में अठारह पाप स्थानक का यह प्रथम अंतर द्वार कहा है अब आठ मदस्थान का दूसरा अंतर द्वार कहते हैं ।।६५३९।। आठ मदस्थान त्याग नामक दूसरा अनुशास्ति द्वार : गुरु महाराज क्षपक मुनि को अठारह पाप स्थानक से विरक्त चित्त वाला जानकर सविशेष गुण की प्राप्ति के लिए इस प्रकार कहते है कि-हे गुणाकर! हे आराधनारूपी महान् गाड़ी का जुआ (धूरी) उठाने में वृषभ समान! धन्य है, कि तूं इस आराधना में स्थिर है, सारे मनोविकार को रोककर त्याग करने योग्य धर्मार्थी को सदा अकरणीय, नीच जन के आदरणीय और गुणधन को लूटने में शत्रु सैन्य समान, अष्टमद का त्याग करना चाहिए। वह (१) जातिमद, (२) कुलमद, (३) रूपमद, (४) बलमद, (५) श्रुतमद, (६) तपमद, (७) लाभमद और (८) ऐश्वर्यमद हैं। इसे अनुक्रम से कहते हैं : (१) जातिमद द्वार :-हे श्री जिनवचन से युक्त बुद्धिमान! तुझे तीव्र संताप कारक और अनर्थ का मुख्य कारण भूत प्रथम जातिमद नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह जातिमद करने से कालान्तर में तथाविध दुःखद अवस्थान को प्राप्त करवाकर मानी पुरुषों के भी मान को अवश्यमेव मलिन करता है। और बहुत काल तक नीच योनियों में दुःख से पीड़ित जहाँ तहाँ भ्रमण करके वर्तमान में महा मुश्किल से एक बार उच्च गोत्र मिलने पर बुद्धिमान पुरुष को मद करने का अवसर कैसे हो? अथवा तो जातिमद तब कर सकता है कि यदि वह उत्तम जाति रूप गुण हमेशा स्थिर रहे तो, अन्यथा वायु से फूली हुई मसक के समान मिथ्यामद करने से क्या लाभ? संसार में कर्मवश से होती उत्तम, मध्यम और जघन्य जातियों को देखकर तत्त्व के सम्यग् ज्ञाता कौन ऐसा मद करे? संसार में जीव इन्द्रियों की रचना से एक दो तीन आदि इन्द्रिय वाला अनेक प्रकार की जातियों को प्राप्त करता है 276 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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