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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-तपमद द्वार-दृढ़ प्रहारी की कथा कहा। अब तप के मद को निषेध करने वाला छट्ठा मद स्थान संक्षेप में कहता हूँ ।।६८४९।।
(६) तपमद द्वार :-'मैं ही दुष्कर तपस्वी हूँ इस तरह मद करते मूर्ख चिरकाल किया हुआ उग्र तप को भी निष्फल करता है। बाँस में से उत्पन्न हुई अग्नि के समान तप से उत्पन्न हुई मद अग्नि शेष गुण रूपी वृक्षों के समूह को क्या नहीं जलाती? अर्थात् तपमद गुणों को जला देता है, शेष सब अनुष्ठानों में तप को ही दुष्कर कहा है, उस तप को भी मद से मनुष्य गंवा देता है, वस्तुतः मोह की महिमा महान् है। और अज्ञान वृत्ति से कोई बदला लेने की इच्छा बिना, बल-वीर्य को अल्प भी छुपाए बिना केवल निरपेक्ष वृत्ति से श्रीजिनेश्वर भगवान आदि ने जो तप किया है वह तीन जगत में आश्चर्यकारी और अनुत्तर सुनकर कौन अनार्य अपने अल्पमात्र तप का मद करे? अत्यंत असाधारण बल बुद्धि से मनोहर पूर्व पुरुष तो दूर रहे, परंतु इस प्रकार के श्रुत को नहीं जानने वाले और सामान्य रूप वाले जो दृढ़ प्रहारी मुनि थे उनकी भी तपस्या जानकर अल्प तप का मद कौन बुद्धिशाली करे? (नहीं करना!) ।।६८५६।। उसका प्रबंध इस प्रकार :
दृढ़ प्रहारी की कथा एक महान् नगरी में न्यायवंत एक ब्राह्मण रहता था, उसका दुर्दान्त नामक पुत्र हमेशा अविनय करता था। एक दिन संताप के कारण पिता ने उसे अपने घर से निकाल दिया और घूमते हुए वह किसी तरह चोरों की पल्ली में पहुँच गया। वहाँ पल्लीपति ने उसे देखा और पुत्र बिना का होने से उसे पुत्र बुद्धि से रखा और तलवार, धनुष्य, शस्त्र आदि चलाने की कला सिखाई। वह अपनी बुद्धिरूपी धन से उसमें अत्यंत समर्थ बना और पल्लीपति तथा अन्य लोगों का प्राण से भी प्रिय बना। निर्दय कठोर प्रहार करने से हर्षित होते पल्लीपति ने उसका गुणवाचक दृढ़प्रहारी नाम स्थापन किया। फिर घोड़े की राल और इन्द्र धनुष्य के समान सर्व पदार्थ विनश्वर होने से तथाविध रोग के कारण पल्लीपति मर गया। उसका मृत कार्य कर लोगों ने दृढ़प्रहारी को उचित मानकर पल्लीपति पद पर स्थापन किया और सभी ने नमस्कार किया। महा पराक्रमी वह अपने पल्ली के लोगों का पूर्व के समान पालन पोषण करता था और निर्भयता से गाँव, खान, नगर और श्रेष्ठ शहर को लूटता था। फिर किसी दिन गाँव को लूटने वे कुशस्थल में गये। वहाँ देवशर्मा नामक अति दरिद्र ब्राह्मण रहता था। उस दिन उसके संतानों ने खीर की प्रार्थना करने से अत्यंत प्रयत्न से घर-घर से भीख मांगकर चावल सहित दूध पत्नी ने लाकर दिया। उसके बाद वह खीर तैयार हो रही थी तब देव पूजा आदि नित्य क्रिया करने के लिये वह ब्राह्मण नदी किनारे गया।
उस समय चोर उसके घर में पहुँचे, वहाँ खीर तैयार हुई देखकर और भूख से पीड़ित एक चोर ने उसे ग्रहण की। उस खीर की चोरी होते देखकर 'हा! हा! लूट गये।' ऐसा बोलते बालकों ने दौड़े हुए जाकर देव शर्मा से कहा। इससे क्रोधवश ललाट ऊँची चढ़ाकर विकराल भृकुटी से भयंकर मुखवाला प्रचंड तेजस्वी आँखों को बार-बार नचाते मस्तक के चोटी के बाल बिखरे हुए अति वेग पूर्वक चलने से कटी प्रदेश का वस्त्र शिथिल हो गया, हाथ की अंगुलियों से पुनः स्वस्थ करते और ऊँट के बच्चे की पूँछ समान दाढ़ी मूंछ को स्पर्श करते वह देव शर्मा अरे पापी! म्लेच्छ! अब कहाँ जायगा? ऐसा बोलते वह द्वार के परिघ (द्वार की एक शाख) को लेकर चोरों के साथ युद्ध करने लगा। तब गर्भ के महान् भार से आक्रांत उसकी पत्नी युद्ध करते उसको रोकने लगी। फिर भी कुपित यम के समान प्रहार करते वह रुका नहीं। इससे उसके द्वारा अपने चोरों को मारते देखकर अत्यंत गुस्से हुए दृढ़ प्रहारी ने तीक्ष्ण तलवार को खींच ब्राह्मण को और 'न मारो! न मारो!' इस तरह बार-बार 1. अन्य कथानकों में चार हत्या का उल्लेख है।
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