Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 320
________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-कंडरीक की कथा श्री संवेगरंगशाला कारणभूत अनेक प्रकार के पाप का बंध भी करता है। इससे अनेकशः नरक की वेदनाओं को और तिर्यंच गतियों के दुःखों को प्राप्त करता है। इस तरह विषय रूपी ज्वर का रोगी जीव को श्रीखंड-दही पदार्थ आदि का पान करने के समान है। यदि विषयों से कुछ भी गुण होता तो निश्चय ही श्री जिनेश्वर, चक्रवर्ती और बलदेव इस तरह विषय सुख को लात मार कर धर्मरूपी उद्यान में क्रीड़ा नहीं करते। इसलिए हे देवानुप्रिय! तूं इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक विचार कर विषय के अल्पमात्र सुख को छोड़ दे और प्रशम रस का अपरिमित सुख का भोग कर। क्योंकि प्रशम रस का सुख क्लेश बिना साध्य है, इसमें कोई लज्जा का कारण नहीं है, परिणाम में सुंदर और इस विषय सुख से अनंतानंत अधिक गुण वाला है। इसलिए अत्यंत कृतार्थ इस प्रशम रस में ही गाढ़ राग मन वाले, धीर और नित्य परमार्थ के साधक, उन साधुओं को ही धन्य है कि जिन्होंने संसार को मृत्यु के संताप से भयंकर जानकर विष समान विषय सुख का अत्यंत त्याग किया है। विषयों की आशा से बद्ध चित्तवाला जीव विषय सुख की प्राप्ति बिना भी कंडरीक के समान अवश्य घोर संसार में भटकता है ।।७२३०।। वह इस प्रकार : कंडरीक की कथा पुंडरीकिणी नगरी में प्रचंड भुजादंड से शत्रुओं का पराभव करने वाला फिर भी श्री जिनेश्वर के धर्म में एक दृढ़रागी पुंडरीक नामक राजा था। सद्गुरु के पास राजलक्ष्मी को बिजली के प्रकाश के समान नाशवंत, जीवन को जोरदार वायु से टकराते दीपक ज्योति के समान अति चपल और विषयसुख को भी किंपाक फल समान, अंत में सविशेष दुःखदायी जानकर प्रतिबोध प्राप्त कर दीक्षा लेने की इच्छा वाले उस महात्मा ने अति स्नेही कंडरीक नामक अपने छोटे भाई को बुलाकर कहा कि-हे भाई! तूं यहाँ अब राज्यलक्ष्मी को भोग। संसार वास से विरागी मैं अब दीक्षा को स्वीकार करूँगा। कंडरीक ने कहा कि-महाभाग! दुर्गति का मूल होने से यदि तूं राज्य छोड़कर दीक्षा लेने की इच्छा करता है तो मुझे भी राज्य से क्या प्रयोजन है? सर्वथा राग मुक्त मैं गुरु के चरण कमल में अभी ही श्री भगवती दीक्षा को स्वीकार करूँगा। फिर राजा ने अनेक प्रकार की युक्तियों द्वारा बहुत समझाया, फिर भी अत्यंत चंचलता से उसने आचार्य महाराज के पास दीक्षा ली। गुरुकुल वास में रहा, पुर नगर आदि में विचरते और अनुचित्त आहार के कारण शरीर में बीमारी हो गयी, एक बार विहार करते चिरकाल के बाद पुंडरीकिणी नगरी पधारें, उस समय पुंडरीक राजा ने वैद्य के औषधानुसार उनकी सेवा की। इससे वह स्वस्थ शरीर वाला हुआ फिर भी रस स्वाद के लालच से दूसरे स्थान पर विहार करने का अनुत्साही बन गया। राजा ने उसे इस तरह से उत्साहित किया कि-हे महाशय! आप धन्य हो। कि जिस तप को कमजोर शरीरवाले होने पर भी वैरागी बने द्रव्य क्षेत्र आदि में निश्चय थोड़ा भी राग नहीं करते हैं। आप ही हमारे कुलरूपी आकाश में पूर्णिमा के पूर्ण चंद्र हो कि जिससे उत्तम चारित्र की प्रभा के विस्तार से विश्व उज्ज्वल होता है, अर्थात् विश्व निर्मल कीर्ति को प्राप्त करता है। हे महाभाग! आपने ही अप्रतिबद्ध विहार का पालन किया है कि जिससे आप मेरी विनती से भी यहाँ पर नहीं रूकते हो। इस प्रकार उत्साहकारक वचनों से राजा ने इस तरह उत्तम रीति से समझाया कि जिससे शीतल विहारी भी कंडरीक ने अन्य स्थान पर विहार किया, परंतु भूमिशयन, सुलभ भोजन आदि से संयम में भग्नमनवाला शीलरूपी महाभार को उठाने में थका हुआ, मर्यादा रहित विषयों में महान् रागवाला वह गुरुकुल वास में से निकलकर राज्य के उपभोग के लिए पुनः अपनी नगरी में आया। उसके बाद राजा के उद्यान में वृक्ष की शाखा पर चारित्र के उपकरणों को लगाकर निर्लज्ज वह हरी वनस्पति से युक्त भूमि पर बैठा। और उसे इस तरह बैठा 303 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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