Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 318
________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-अभयकुमार की कथा श्री संवेगरंगशाला की (वि+सय=विषय) ऐसी नियुक्ति (व्याख्या) की है। यह विषय निश्चय महाशल्य है, परलोक के कार्यों में महाशत्रु है, महाव्याधि है, और परम दरिद्रता है। जैसे हृदय में चुभा हुआ शल्य (कांटा) प्राणियों को सुखकारक नहीं होता है, वैसे हृदय में विषय के विचार मात्र भी जीव को दुःखी ही करता है। जैसे कोई महाशत्रु विविध दुःख को देता है वैसे विषय भी दुःख को देता है अथवा शत्रु तो एक ही भव में और विषय तो परभव में भी दुःखों को देता है। जैसे महाव्याधि इस भव में पीड़ा देती है वैसे यह विषय भी यहाँ पीड़ा देता है, इसके अतिरिक्त वह अन्य भवों में भी अनंतगुणी पीड़ा देता है। जैसे यहाँ महादरिद्रता सभी पराभवों का कारण है वैसे विषय भी अवश्य पराभवों का परम कारण है। जो विषय रूपी मांस में आसक्त हैं उन अनेक पुरुषों ने बहुत प्रकार से पराभव के स्थान प्राप्त किये हैं, प्राप्त करते हैं और प्राप्त करेंगे। विषयासक्त मनुष्य जगत को तृण समान मानता है, विषय का संदेह हो वहाँ भी प्रवेश करता है, मरण के सामने छाती रखता है, अर्थात् डरता नहीं है, अप्रार्थनीय नीच को भी प्रार्थना करता है, भयंकर समुद्र को भी पार करता है तथा भयंकर वेताल को भी सिद्ध करता है। अधिक क्या कहें? विषय के लिए मनुष्य यम के मुख में भी प्रवेश करता है, मरने के लिए भी तैयार होता है। विषयातुर जीव बड़े-बड़े हितकर कार्य को छोड़कर एक मुहूर्त मात्र वैसा पाप कार्य करता है कि जिससे जावज्जीव तक जगत में हंसी होती है। विषय रूपी ग्रह के आधीन पड़ा मूढात्मा पिता को भी मारने का प्रयत्न करता है. बंध को भी शत्रु समान मानता है और स्वेच्छा से कार्यों को करता है। विषय अनर्थ का पंथ है, पापी विषय मान महत्त्व का नाशक है, लघुता का मार्ग है और अकाल में उपद्रवकारी है। विषय अपमान का स्थान है, अपकीर्ति का अवश्य कारण है, दुःख का एक परम कारण है और इस भव परभव का घातक है। विषयासक्त पुरुष का मन मार्ग भ्रष्ट होता है, बुद्धि नाश होती है, पराक्रम खत्म होता है, और गुरु के हितकर उपदेश को भूल जाता है। तीन लोक के भूषण रूप उत्तम जाति, कुल, और कीर्ति को भी विषयासक्ति से दोनों पैरों से दूर फेंक देता है। श्री जिनमुख देखने में चतुर नेत्र वाला अर्थात् ज्ञान चक्षु वाला हो, परंतु वह तब तक दर्शनीय पदार्थों को देख सकता है कि जब तक विषयासक्ति रूप नेत्र रोगी नहीं होता है। मन मंदिर में धर्म के अभिप्राय का आदर रूपी प्रदीप तब तक प्रकाशमान रहता है, जब तक विषयासक्ति रूपी वायु की आँधी नहीं आती है। सर्वज्ञ की वाणी रूपी जहाज वहाँ तक संसार समुद्र से तरने में समर्थ है कि जहाँ तक विषयासक्ति रूपी प्रतिकूल पवन नहीं चलता है। निर्मल विवेक रत्न वहाँ तक चमकता है अथवा प्रकाश करता है कि जब तक विषयासक्ति रूपी धूल ने उसे मलिन नहीं किया। जीव रूपी शंख में रहा हुआ शील रूपी निर्मल जल तब तक शोभता है कि जब तक विषय के दुराग्रह रूपी अशुचि के संग से मलिन नहीं हुआ है। धर्म को करने में अनासक्त और विषयसेवन में आसक्त ऐसे अति कठोर जीव अपनी अशरणता के स्वरूप को नहीं जानता और अपने हित को नहीं करता है। विषय विद्वानों को जहर देता है, श्री जिनागम रूपी अंकुरे का सर्वथा अपमान करने वाला, शरीर के रुधिर को चूसने में मच्छर के समान और सैंकड़ों अनिष्टों को करने वाला होता है। अति चिरकाल तप किया हो, चारित्र का पालन किया हो और श्रुतज्ञान भी बहुत पढ़ा हो, फिर भी यदि विषय में बुद्धि है तो निश्चय वह सारा निष्फल है।' अहो! विषय रूपी प्रचंड लुटेरा जीव के सम्यग् ज्ञानरूपी मणियों से अति मूल्यवान और स्फुरायमान चारित्र रत्न से सुशोभित भंडार को लूटता है। उस विषयाभिलाषा को धिक्कार हो! कि जिससे महत्त्व, तेज; विज्ञान और गुण सर्व निश्चय ही एक क्षण में विनाश होते हैं। हा! धिक्कार है! पूर्व में कभी नहीं मिला ऐसे श्री जिनवचन रूपी उत्तम रसायण का पानकर भी विषय रूपी महाविष से व्याकुल होकर जिन वचन का 1. सुचिरं पि तवो तवियं, चिन्नं चरणं चरणं सुयं च बहु पढियं । जइ ता विसएसु मई, ता तं ही! निष्फलं सव्वं ।।७१६७।। 301 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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