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समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-बलमद द्वार-मल्लदेव की कथा
श्री संवेगरंगशाला से निकल गयी। हृदय में फैले हास्य वाले धनरक्षित ने उसे (धर्मदेव से) कहा कि-हे मित्र! इतना होते हुए भी तूं क्यों नहीं बोलता? अब मैं क्या करूँ? इससे परम संताप को धारण करते उसने सरलता से कहा कि-भाई! अब भी क्या बोलने जैसा है? तूं अपने घर जा, क्योंकि राक्षसी समान भी उसने इस तरह पराभव किया, उससे मुझे अब जीने से क्या प्रयोजन है? धनरक्षित ने कहा-पुरुष के गुण-दोष के ज्ञान से रहित स्त्रियों के प्रति मिथ्या शोक क्यों करते हो? बाद में मुश्किल से उसे घर ले आया, परंतु रात को निकलकर उसने तापस मुनि के पास दीक्षा ली। उसने अज्ञान तप कर आखिर मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ आयुष्य पूर्णकर वह यह वसुदेव नाम से सुंदर रूपवाला धनपति का पुत्र हुआ। और रूप मद से अत्यंत उन्मत्त मनवाला धनरक्षित परलोक के कार्यों का प्रायश्चित्त किये बिना मरकर चिरकाल तिथंच आदि गतियों में परिभ्रमणकर, रूप मद के दोष से इस प्रकार सर्व अंगहीन विकल अंगवाला और लावण्य रहित यह स्कंदक नाम से उत्पन्न हुआ है। अतः जो तुमने पहले परमार्थ पूछा था, वह यह है। इस प्रकार सुनकर जो उचित हो उसका आचरण करो। ऐसा सुनकर वहाँ अनेक जीवों को प्रतिबोध हुआ और वे दोनों धनपति के पुत्रों ने दीक्षा लेकर मुक्ति पद प्राप्त किया।
इस तरह रूप मद से दोष प्रकट होता है और उसके त्याग करने से गुण होते जानकर, हे क्षपक मुनि! तुझे अल्पमात्र भी रूपमद नहीं करना चाहिए। इस तरह मैंने यह तीसरा रूपमद स्थान को कुछ बतलाया है। अब चौथा बलमद स्थान को संक्षेप में कहता हूँ।
(४) बलमद द्वार :-अनियत रूपत्व से क्षण में बढ़ता है और क्षण में घटता है ऐसा जीवों का शरीर बल अनित्य है ऐसा जानकर कौन बुद्धिमान उसका मद-अभिमान करें। पुरुष प्रथम बलवान और संपूर्ण गाल कनपट्टी वाला होकर भय, रोग तथा शोक के कारण जब क्षण में निर्बल होता है तथा निर्बलता होते अति शुष्क गाल और कनपट्टी होती है और उपचार करने से पुनः वह बलवान हो जाता है और प्रबल बल वाला मनुष्य भी मृत्यु के सामने जब नित्य अत्यंत निर्बल होता है तब बलमद करना किस तरह योग्य है? सामान्य राजा बल से श्रेष्ठ होता है तथा उससे बलदेव और बलदेवों से भी चक्रवर्ती अधिक, अधिक श्रेष्ठ होता है, उससे भी तीर्थंकर प्रभु अनंत बली होते हैं। इस तरह निश्चय बल में उत्तरोत्तर अन्य अधिक श्रेष्ठ होते हैं, फिर भी अज्ञ आत्मा बल का गर्व मिथ्या करते हैं। क्षयोपशम से उपार्जित अल्प बल से भी जो मद करता है, वह मल्लदेव राजा के समान इस जन्म में भी मृत्यु प्राप्त करता है ।।६७३१।। वह इस प्रकार :
मल्लदेव राजा की कथा श्रीपुर नगर में अजोड़ लक्ष्मी की विशालता वाले शरदचंद्र के समान यश समूहवाला, विजयसेन नाम का राजा राज्य करता था। वह एक समय जब सुखपूर्वक आसन पर बैठा था, तब दक्षिण दिशा में भेजा हुआ सेनापति आया और पंचांग से नमस्कार करके पास में बैठा। उसके बाद उसे राजा ने स्नेहभरी आँखों से देखकर कहा कि-तेरा अति कुशल है? उसने कहा कि-आपके चरण कृपा से केवल कुशल ही नहीं, परंतु दक्षिण के राजा को जीता हूँ। इससे अत्यंत हर्ष से श्रेष्ठ प्रसन्न नेत्रों वाले राजा ने कहा कि-कहो उसे किस तरह जीता? उसने कहा कि-सुनो! आपकी आज्ञा से हाथी, घोड़े, रथ और यौद्धा रूप चतुर्विध सेना के यूथ सहित लेकर मैं दक्षिण देश के राजा के सीमा स्थल पर रूका और दूत द्वारा उसे मैंने कहलवाया कि-शीघ्र मेरी सेवा को स्वीकार करो अथवा युद्ध के लिए तैयार हो। ऐसा सुनकर प्रचंड क्रोधित हुए उस राजा ने दूत को निकाल दिया और अपने प्रधान पुरुषों को आदेश दिया कि-अरे! अभी ही शीघ्र शस्त्र सजाने की सूचना देकर भेरी बजा दो, चतुर्विध सैन्य को तैयार करो, जयहस्ती को ले आओ, मुझे शस्त्र दो और सेना को शीघ्र प्रस्थान करने की आज्ञा दो। फिर मनुष्यों
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