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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-बलमद द्वार-मल्लदेव की कथा ने उसी क्षण स्वीकार करके, सारे तैयार हुए। एक साथ तीन जगत का ग्रास करने की इच्छावाला हो, इस तरह वह मगर, गरूड़, सिंह आदि चिह्न वाली ध्वजाओं से भयंकर सेना के साथ मेरे सामने चला। चरपुरुषों के कहने से उसे आते जानकर मैंने भी सेना को तैयार करके लम्बे प्रस्थान कर उसके सन्मुख जाने लगा, फिर उसके समीप में पहुँचने पर चरपुरुष द्वारा जाना की उसकी सेना अपरिमित बहुत विशाल है। ऐसा जानकर मैं कपट युद्ध करने की इच्छा से उसे दर्शन देकर अति वेग वाले घोड़े से अपनी सेना को शीघ्र वहाँ से दूर वापिस ले चला कि जिससे मुझे डरा हुआ और वापिस जाते हुए जानकर उसका उत्साह अधिक बढ़ गया और मुग्ध बुद्धि वाला वह राजा मेरी सेना के पीछे पड़ा। इस तरह प्रतिदिन मेरे पीछे चलने से अत्यंत थका हुआ संकट में आ गया। निर्भय और प्रमादी चित्तवाली उसकी सेना को देखकर मैं सर्व बल से लड़ने लगा और हे देव! आपके प्रभाव से अनेक सुभटों द्वारा भी उस शत्रु सैन्य को मैंने अल्पकाल में हरा दिया। उस समय सेनापति के आदेश अनुसार पुरुषों ने उस शत्रु राजा के भण्डार और आठ वर्ष का उसका पुत्र विजयसेन राजा को दिया। फिर सेनापति ने कहा कि-हे देव! यह भंडार दक्षिण राजा का है और पुत्र भी उसका ही है, अब इसका जो उचित लगे वैसा करो।
उस पुत्र को अनिमेष दृष्टि से देखते राजा को उसके प्रति अनुभव से ही अपना पुत्र हो ऐसा राग प्रकट हुआ और पादपीठ के ऊपर बैठाकर मस्तक पर चुंबन करके उसने कहा कि-हे वत्स! अपने घर के समान यहाँ प्रसन्नता से रहो। फिर राजा के पास बैठी रानी को सर्व आदरपूर्वक उस पुत्र को सौंपा और कहा कि-मैं इस पुत्र को दे रहा हूँ। उसने स्वीकार किया और बाद में उस पुत्र ने विविध कलाओं का अभ्यास किया, क्रमशः वह देव के सौंदर्य को जीते ऐसा यौवनवय प्राप्त किया। उसने अपने अत्यंत भुजा बल से बड़े-बड़े मल्लों को जीता, इसलिए राजा ने उसका नाम मल्लदेव रखा। फिर उसे योग्य जानकर उसे अपने राज्य पर स्थापित किया। और स्वयं तापसी दीक्षा लेकर राजा वनवासी बना। मल्लदेव भी प्रबल भुजा बल से सीमा के सभी राजाओं को जीतकर असीम बल मद को धारण करता अपने राज्य का पालन करता था। एक समय उसने उद्घोषणा करवाई कि जो कोई मेरा प्रतिमल्ल बतलायेगा उसे मैं एक लाख मोहर अवश्य दूंगा।
यह सुनकर एक जीर्ण कपड़े को धारण करते दुर्बल काया वाले परदेशी पुरुष ने राजा के पास आकर कहा कि-हे देव! सुनो! सारी दिग्चक्र में परिभ्रमण करते मैंने पूर्व दिशा में वज्रधर नामक राजा को देखा है अप्रतिम प्रकृष्ट बल से शत्रु पक्ष को विजय करने वाला वह अपने आप 'त्रैलोक्य वीर' कहलाता है। और वह नहीं संभव वाला असंभवित नहीं है, क्योंकि उस राजा के लीलामात्र से भी तमाचा मारने मात्र से निरंकुश हाथी भी वश होकर ठीक मार्ग पर आते हैं। ऐसा सुनकर उसे लाख सोना मोहर देकर अपने आदमी को आज्ञा दी किअरे! उस राजा के पास जाकर ऐसा कहना कि-यदि किसी तरह दान का अर्थी भाट चारण ने 'त्रैलोक्य वीर' रूप में तेरी स्तुति की, तो तूंने उसे क्यों नहीं रोका? अथवा इस कीर्तन से क्या प्रयोजन है? अब भी इस बिरुदावली को छोड़ दे। अन्यथा यह मैं आ रहा हूँ, युद्ध के लिए तैयार हो जा। उस मनुष्य ने वहाँ जाकर उसी तरह सर्व उससे निवेदन किया। अतः भृकुटी चढ़ाकर भयंकर मुख वाले उस वज्रधर ने कहा कि-अरे! वह तेरा राजा कौन है? उसका नाम भी मैंने अभी ही जाना है, अथवा इस तरह कहने का उसे क्या अधिकार है? अथवा अन्यायवाद से अभिमानी और असमर्थ पक्ष बल वाला है, उस रंक की दशा यदि मेरे युद्धरूपी अग्नि शिखा में पतंगा के समान न हो तो मेरी लड़ाई मत कहना। इसलिए 'अरे! जल्दी जा और उसे भेज कि जिससे उसके विचार अनुसार करूँगा।' ऐसा सुनकर वापिस जाकर उस पुरुष ने मल्लदेव राजा को उसीके अनुसार कहा। फिर मंत्रि-वर्ग के रोकने पर भी सर्व सैन्य सहित मल्लदेव ने प्रस्थान किया और क्रमशः उसके देश में पहुँचा, उसका आगमन
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