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समाधि लाभ द्वार-दूसरा अनुशास्ति द्वार-कुलमद द्वार-मरिचि की कथा
श्री संवेगरंगशाला
गाते उन्होंने उसे देखा। इससे हर्ष के आवेश वश भावी दोषों का विचार किये बिना ही उन्होंने उसे कहा किहे मित्र! यहाँ आओ, जिससे बहुत काल के बाद हुए तेरे दर्शन के उचित हम आलिंगन आदि करें। और आपके पिता आदि का वृत्तांत सुनाएं। फिर उनको देखकर वह मुंह छुपाकर चला गया, इससे विस्मय प्राप्तकर मंत्री ने उनसे असली बात पूछी। सरलता से उन्होंने यथास्थिति कह दी। इससे क्रोधित होकर उसे शूली के प्रयोग से मार देने की आज्ञा की। राज पुरुष उसे गधे पर बिठाकर तिरस्कार पूर्वक नगर में घुमाकर शूली के पास ले गये। उस समय प्रसन्न रूप वाले को देखकर एक जोगीश्वर को अति करुणा प्रकट हुई, उनके पास अंजन सिद्धि थी। उसने विचार किया कि यह पुरुष अकाल में छोटी-सी उम्र वाला बिचारा अभी ही मर जायगा? अतः अंजन की सलाई से स्वयं अदृश्य बनकर उसके आँखों में अंजन डाला और कहा कि-यम से भी निर्भय होकर यहाँ से चला जा। फिर अंजन सिद्धि के साधक को विनयपूर्वक नमस्कार कर वह वहाँ से भागा, और आखिर मरकर कई जन्मों तक नीच योनियों में जन्म लिया। फिर मनुष्य जन्म को प्राप्त किया और वहाँ केवली भगवंत से अपने पूर्व जन्म को जानकर दीक्षा स्वीकार की, वहाँ आयुष्य पूर्णकर माहेन्द्र कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ। इस तरह हे क्षपक मुनि! जातिमद से होने वाले दोष को देखकर तुझे अनिष्ट फलदायक जातिमद अल्प भी नहीं करना चाहिए। इस तरह प्रथम मद स्थान कहा और अब मैं कुल के मद का दूसरा मद स्थान अल्पमात्र कहता हूँ ।।६६१५।।
(२) कुलमद द्वार :-जातिमद के समान कुलमद को करने से निर्गुणी परमार्थ से अज्ञ मनुष्य अपने आपको दुःखी करता है। क्योंकि इस लोक में स्वयं दुरात्मा को गुण से युक्त उत्तम कुल भी क्या लाभ करता है? क्या सुगंध से भरे हुए पुष्प में कीड़े उत्पन्न नहीं होते हैं? हीन कुल में जन्मे हुए भी गुणवान सर्व प्रकार से लोक पूज्य बनते हैं; तथा कीचड़ में उत्पन्न हुए भी कमल को मनुष्य मस्तक पर धारण करते हैं। उत्तम कुल वाले भी मनुष्य यदि शील, बल, रूप, बुद्धि, श्रुत, वैभव आदि से रहित हो और अन्य पवित्र गुणों से रहित हो तो कुलमद करने से क्या लाभ है? कुल भले अति ऊंच हो और कुशील को अलंकार से भूषित भी करो, परंतु चोरी आदि दुष्ट आसक्ति वाले उस कुशील को कुलमद करने से क्या हितकर है? उत्तम कुल में जन्म लेनेवाला भी यदि हीन कुल वाले का मुख देखता है उसका दासत्व स्वीकार करता है तो उसको कुलमद नहीं करना परंतु मरना ही श्रेयस्कर है और दूसरी बात यह है कि यदि गुण नहीं है तो कुल से क्या प्रयोजन है? गुणवंत को कुल का प्रयोजन नहीं है, गुण रहित मनुष्यों को निष्कलंक कुल की प्राप्ति यह भी एक महान् कलंक है। यदि उस समय मरिचि ने कुल का मद नहीं किया होता, तो अंतिम जन्म में कुल बदलने का समय नहीं आता ।।६६२३।। उसका दृष्टांत इस प्रकार है :
मरिचि की कथा नाभिपुत्र श्री ऋषभदेव के राज्य काल में अभिषेक में उद्यम करते विवेकी युगलिकों का विनय देखकर प्रसन्न चित्त हुए इन्द्र ने श्रेष्ठ विनीता नगरी बनायी थी। त्रिभुवन पति श्री ऋषभदेव भगवान के चरणों रूपी कमलों के स्पर्श से पूजित विनीता नगरी के सामने इन्द्रपुरी भी अल्पमात्र श्रेष्ठता को प्राप्त नहीं कर सकी। मैं मानता हूँ कि उसके महान् सौन्दर्य को फैलते नजर से देखते देवता वहीं पर ही अनिमेषत्व प्राप्त करते हैं। राजाओं के मस्तक मणि के किरणों से व्याप्त चरण वाले और भयंकर चक्र द्वारा शत्रु समूह को कंपायमान करने वाले भरत राजा उसका पालन करता था। जिस भरत महाराजा के शत्रु की स्त्रियों का समूह स्तन पीठ ऊपर गिरते आंसु वाली, बड़े मार्ग की उड़ती धूल से नष्ट हुई शरीर की कांति के विस्तार वाली, आहार ग्रहण से मुक्त (भूख से पीडित होने से) बील के फल से जीते, सर्प और मेंढक के बच्चों से भरे हुए घर (जंगल) में रहते और प्रकट शिकारी
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