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ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार
श्री संवेगरंगशाला से कंपते शरीर वाले, उसने लज्जा छोड़कर एकांत में वैद्य को मांस खाने का वृत्तान्त मूल से कहा, तब वैद्य ने कहा कि-हे मूढ़! इतने दिन इस तरह आत्मा को संताप में क्यों रखा? अब भी हे भद्र! तूंने श्रेष्ठ ही कहा है कि रोग का कारण जाना है। तूं अब डरना मत, अब मैं ऐसा करूँगा जिससे तूं निरोगी हो जायगा। उसके बाद उसने योग्य औषध का प्रयोग करके उसे स्वस्थ कर दिया। इस तरह इस दृष्टांत से लज्जा छोड़कर जिस दोष को जिस तरह सेवन किया उसे उसी तरह कहने वाले परम आरोग्य-मुक्ति को प्राप्त करते हैं। गारव (बडप्पन) का पक्ष नहीं करना चाहिए, परंतु चारित्र का पक्ष करना चाहिए, क्योंकि गारव से रहित स्थिर चारित्र वाला मुनि मोक्ष को प्राप्त करता है। यह मेरा ऋद्धि आदि सुख नहीं रहेगा, नष्ट हो जायगा ऐसे भय से एवं दुर्गति का मूल ऋद्धि आदि गारव में आसक्त होकर अपने अपराध को नहीं स्वीकारता, उसकी आलोचना नहीं करता, वे जड़ मानव अस्थिर काँचमणि को परमप्रिय स्वीकार करके शाश्वत निरुपम सुख को देने वाले चिंतामणि रत्न का अपमान करते हैं। इसलिए गारव के त्यागी, इन्द्रियों को जीतनेवाले, कषाय से रहित आत्मा को राग द्वेष से मुक्त होकर आलोचना करनी चाहिए।
आलोचना परसाक्षी से करें :- मैं जिस तरह प्रायश्चित्त के अधिकार का सम्यग् ज्ञाता हूँ, इस तरह दूसरा कौन ज्ञाता है? अथवा मेरे से अधिक ज्ञानवान दूसरा कौन है? इस प्रकार अभिमान से जो अपने दुश्चरित्र को दूसरे को न कहें, वह पापी प्रमाद से सम्यग् औषध को नहीं करने वाले रोगी वैद्य के समान आराधना रूपी आरोग्यता को प्राप्त नहीं करता है। जैसे कोई रोगी वैद्य ज्ञान के गर्व से अपने रोग को न कहकर, स्वयं सैंकड़ों औषध करने पर भी रोग की पीड़ा से मर जाता है। उसी तरह जो अपने अपराध रूपी रोग को दूसरे को सम्यग् रूप से नहीं कहता, वह श्वास के जीते हुए अथवा ज्ञान से ज्ञानी होने पर भी नाश होता है। क्योंकि व्यवहार में अच्छे कुशल छत्तीस गुण वाले आचार्य को भी यह आलोचना सदा परसाक्षी से ही करनी चाहिए। आठ-आठ भेद वाला दर्शन, ज्ञान, चारित्राचारों से और बारह प्रकार के तप से युक्त, इस तरह आचार्य में छत्तीस गुण होते
हैं।
'वयछक्क' आदि गाथा में कहा है अर्थात् छह व्रतों का पालक, छह काया का रक्षक तथा अकल्पनीय वस्तु, गृहस्थ का पात्र, पल्यंक, निषधा, स्नान और विभूषा का त्याग इस तरह अठारह गुण तथा पंचविध आचार का निरतिचार पालन करें, पालन करावे और यथोक्त शास्त्रानुसार उपदेश दें। इस तरह आचारवान् आदि आठ तथा दस प्रकार के प्रायश्चित्त के जानकार इस तरह भी छत्तीस गुण होते हैं।
तथा आठ प्रवचन माता और दस प्रकार का यति धर्म यह अठारह एवं छह व्रतों का पालन, छह काया का रक्षण आदि ऊपर कहे अनुसार अठारह भेद मिलाकर भी छत्तीस गुण होते हैं।।
___अथवा आचारवान् आदि आठ गुण, अचेलकत्व औद्देशिक त्याग आदि दस प्रकार का स्थित कल्प, बारह प्रकार का तप और छह आवश्यक इस तरह भी छत्तीस गुण होते हैं।
इस प्रकार अनेक प्रकार से कहे हुए छत्तीस गुणों के समूह से शोभित आचार्य को भी मुक्ति के सुख के लिए आलोचना सदा परसाक्षी से ही करनी चाहिए। जैसे कुशल वैद्य भी अपना रोग दूसरे वैद्य को कहता है और दूसरा वैद्य भी सुनकर रोगी वैद्य की श्रेष्ठ चिकित्सा प्रारंभ करता है वैसे प्रायश्चित्त विधि का स्वयं अच्छी तरह जानकार हो फिर भी अपने दोषों को अन्य गुरु को अति प्रकट रूप से कहना चाहिए। तथा जो अन्य आलोचनाचार्य होने पर उन्होंने आलोचना दिये बिना ही वे आलोचना नहीं देते, ऐसे मानकर यदि अपने आप 1. गुरुगुणषट्त्रिशिका (उपा, श्री यशोविजयजी रचित) में ३६प्रकार से ३६ गुणों का वर्णन है।
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