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ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार- सूरतेज राजा का प्रबंध
श्री संवेगरंगशाला को पाप की शुद्धि होती है। इस कारण से इस विषय में नित्य बाह्य अभ्यंतर समग्र इन्द्रियों से धर्मी होना चाहिए, परंतु मिथ्या आग्रह वाला नहीं होना चाहिए। इस तरह क्रम प्राप्त प्रायश्चित्त द्वार को संक्षेप से कहा है,
अब फल द्वार को कहते हैं। इसमें शिष्य प्रश्न करते हैं कि - यहाँ पर आलोचना अधिकार में पूर्व में आलोचना का जो गुण कहा है वह गुण आलोचना को देने के बाद होने वाला वही आलोचना का फल है, अतः पुनः इस द्वार को कहने से क्या लाभ है? इसका समाधान कहते हैं कि - तुम कहते हो वह पुनरुक्त दोष यहाँ नहीं है, क्योंकि पूर्व में जो कहा है वह गुण आलोचना का अनंतर फल है और यहाँ इस द्वार का प्रस्ताव परम्परा के फल को जानने के लिए कहा है।
१०. आलोचना का फल :- राग-द्वेष और मोह को जीतने वाले श्री जिनेश्वर भगवान ने इस आलोचना का फल शरीर और आत्मा के दुःखों का क्षय होने से शाश्वत सुख वाले मोक्ष की प्राप्ति कहा है, क्योंकिसम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप को मोक्ष का हेतु कहा है। चारित्र होने पर सम्यक्त्व और ज्ञान अवश्य होता है। वह चारित्र विद्यमान होने पर भी प्रमाद दोष से मलिनता को प्राप्त करते हुए उसके लाखों भवों का नाश करता है, परंतु उसकी शुद्धि इस आलोचना के द्वारा करता है। और शुद्ध चारित्र वाला संयम में यत्न करते अप्रमादी, धीर, साधु शेष कर्मों को क्षय करके अल्पकाल में श्रेष्ठ केवल ज्ञान को प्राप्त करता है। और फिर केवल ज्ञान को प्राप्त करने वाले, सुरासुर मनुष्यों से पूजित और कर्म मुक्त बनें, वे भगवान उसी भव में शाश्वत सुख वाला मोक्ष प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार प्रायश्चित्त का फल अल्पमात्र इस द्वार द्वारा कुछ कहा है और यह कहने से प्रस्तुत प्रथम आलोचना विधान द्वार पूर्ण रूप में कहा है। हे क्षपक (महासेन) मुनि ! इसको सम्यग् रूप से जानकर आत्मोत्कर्ष का त्यागी-निरभिमानी और उत्कृष्ट आराधना विधि की आराधना करने की इच्छा वाला वह तूं हे धीर पुरुष ! बैठते, उठते आदि में लगे हुए अल्पमात्र भी अतिचार का उद्धार कर, क्योंकि जैसे जहर का प्रतिकार नहीं करने से एक कण भी अवश्य प्राण लेता है, वैसे ही अल्प भी अतिचार प्रायःकर अनेक अनिष्ट फल को देने वाला होता है। इस विषय पर सूरतेज राजा का उदाहरण है ।। ५१०० ।। वह इस प्रकार :
सूरतेज राजा का प्रबंध
विविध आश्चयों का निवास स्थान पद्मावती नगरी के अंदर प्रसिद्ध सूरतेज नाम का राजा था। उसे निष्कपट प्रेमवाली धारणी नाम से रानी थी। उसके साथ में समय के अनुरूप उचित विषयसुख को भोग तथा राज्य के कार्यों की सार संभाल लेते और धर्म कार्य की भी चिंता करते राजा के दिन व्यतीत हो रहे थे। एक समय श्रुत समुद्र के पारगामी, जगत प्रसिद्ध एक आचार्य श्री नगर के बाहर उद्यान में पधारें। उनका आगमन सुनकर नगर
श्रेष्ठ मनुष्यों से घिरा हुआ हाथी के स्कन्ध पर बैठा हुआ, मस्तक पर आभूषण के उज्ज्वल छत्र वाला, पास में बैठी हुई तरुण स्त्रियों के हाथ से ढुलाते सुंदर चामर के समूह वाला और आगे चलते बंदीजन के द्वारा सहर्ष गुण गाते वह राजा श्री अरिहंत धर्म को सुनने के लिए उसी उद्यान में आया एवं आचार्यजी के चरण-कमल में नमस्कार करके अपने योग्य प्रदेश में बैठा। फिर आचार्यश्री ने उसकी योग्यता जानकर जलयुक्त बादल की गर्जना समान गंभीर वाणी से शुद्ध सद्धर्म का उपदेश देना प्रारंभ किया। जैसे कि -
जीवात्मा अत्यधिक काल में अपार संसार समुद्र के अंदर परिभ्रमण करके महामुसीबत से और कर्म की लघुता होने से मनुष्य जीवन प्राप्त करता है। परंतु उसे प्राप्त करने पर भी क्षेत्र की हीनता से जीव अधर्मी बन जाता है। किसी समय ऐसा आर्य क्षेत्र मिलने पर भी उत्तम जाति और कुल बिना का भी वह क्या कर सकता है ? उत्तम
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