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ममत्व विच्छेदन द्वार-संस्तारक नामक तीसरा द्वार-अर्णिका पुत्र आचार्य की कथा
श्री संवेगरंगशाला
महाकष्टपूर्वक आज्ञा दी, फिर पुष्पचूला दीक्षा लेकर अनेक तपस्या द्वारा पापों का पराभव करने लगी।
एक समय दुष्काल पड़ा। सभी शिष्यों को दूर देश में विहार करवा दिया। अर्णिका पुत्र आचार्य का जंघा बल क्षीण होने से अकेले वहीं स्थिरवास किया और पुष्पचूला साध्वी राजमंदिर से आहार, पानी लाकर देती थी। इस तरह समय व्यतीत करते अत्यंत विशुद्ध परिणाम वाली उस साध्वी ने घातीकर्म को नाश करके केवल ज्ञान रूप प्रकाश प्राप्त किया। परंतु 'केवली रूप में प्रसिद्ध न हो वहां तक केवली पूर्व में जो आचार पालन करते हैं, उस विनय का उल्लंघन नहीं करते हैं।' ऐसा आचार होने से वह पूर्व के समान गुरु महाराज को अशनादि लाकर देती थी। एक समय श्लेष्म से पीड़ित आचार्य श्री को तीखा भोजन खाने की इच्छा हुई। उसने उचित समय उस इच्छा को उसी तरह पूर्ण की, इससे विस्मय मन वाले आचार्य श्री ने कहा कि-हे आर्या! तूंने मेरा मानसिक गुप्त चिंतन को किस तरह जाना?1 उसने कहा-ज्ञान से। आचार्यश्री ने पूछा-कौन से ज्ञान के द्वारा? उसने कहा किअप्रतिपाती ज्ञान के द्वारा। यह सुनकर, धिक्कार हो, धिक्कार हो, मुझ अनार्य के, मैंने इस केवली की कैसी आशातना की है? इस तरह आचार्य शोक करने लगे। तब, हे मुनीश्वर! शोक मत करो। क्योंकि-'यह केवली है' ऐसा जाहिर हए बिना केवली भी पर्व के व्यवहार को नहीं छोडते हैं। ऐसा कहकर उसे शोक करते रोका। फिर आचार्य ने पूछा- 'मैं दीर्घकाल से उत्तम चारित्र की आराधना करता हूँ, क्या मैं निर्वाण पद को प्राप्त करूँगा या नहीं?' उसने कहा कि-हे मुनीश! निर्वाण के लिए संशय क्यों करते हो? क्योंकि गंगा नदी के पार उतरते तुम भी शीघ्र कर्मक्षय करोगे।
यह सुनकर आचार्यश्री गंगा पार उतरने के लिए नाव में आकर बैठे। नाव चलने लगी, परंतु कर्म दोष से नाव में जहाँ-जहाँ वे बैठने लगे, वह नाव का विभाग डूबने लगा, इससे 'सर्व का नाश होगा' ऐसी आशंका से निर्यामक ने अर्णिका पुत्र आचार्य को नाव में से उठाकर पानी में फेंक दिया। फिर परम प्रशम रस में निमग्न अति प्रसन्न चित्त वृत्ति वाले, सम्पूर्णतया सभी आश्रव द्वार को रोकने वाले, द्रव्य और भाव से परम वैराग्य को प्राप्त करते, अति विशुद्धि को प्राप्त करते वे आचार्य शुक्ल ध्यान में स्थिर होने से उसके द्वारा कर्मों का क्षय करते, केवल ज्ञान प्राप्त किया। जल के संथारा में रहने पर भी सर्व योगों का संपूर्ण निरोध करते, उन्होंने मोक्ष पद प्राप्त किया और उसके द्वारा मन वांछित कार्य की सिद्धि की। इस तरह जल संथारे पर अर्णिका पुत्र का वर्णन किया और त्रस संथारा के विषय में चिलाती पुत्र का दृष्टांत है वह पूर्व में कहा है।
इस तरह अन्य भी जिस-जिस संथारे में मृत्यु के समय जिस-जिस आत्मा को समभाव से उत्तम समाधि प्राप्त होती है, वह सर्व उनका संथारा जानना। इस तरह संथारा में रहता हुआ वह क्षपक मुनि सर्वश्रेष्ठ तप समाधि में रहकर अनेक जन्मों तक पीड़ा देनेवाले कर्मों को तोड़कर समय व्यतीत करता है, चक्रवर्ती को भी वह सुख नहीं और सारे उत्तम देवों को भी वह सुख नहीं है जो सुख द्रव्य, भाव संथारे में रहे राग रहित वैरागी मुनि को है। इस तरह संथारे में रहा हुआ अति विशुद्ध योग वाला मुनि हाथी के समान अनेक काल के एकत्रित हुए कर्मरूपी वृक्षों के जंगल को चारित्र द्वारा खत्म करता हुआ विचरता है।
इस तरह कामरूपी सर्प को पराभव करने में गरुड़ की उपमायुक्त और संवेग मनरूपी भ्रमर के लिए खिले हुए पुष्पोंवाली उद्यान के समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला ममत्व विच्छेद नाम के तीसरे मूल द्वार में तीसरा संथारा नामक अंतर द्वार कहा। अब संथारे में रहने वाले क्षपक मुनि को निर्यामक बिना समाधि की प्राप्ति नहीं होती है, इसलिए उस निर्यामक द्वार को कहते हैं ।।५३६५ ।। 1. अन्य कथा में वर्षा में गोचरी लाने का कथन है। २. अन्य ग्रन्थों में शूलि पर लेने का एवं खून के बिन्दु जल में गिरने का प्रसंग आया है।
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