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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार - प्रथम अनुशास्ति द्वार-क्रोध पाप स्थानक द्वार प्रसन्नचंद्र राजर्षि की कथा (६) क्रोध पाप स्थानक द्वार :- दुर्गंध वस्तु में से उत्पन्न हुआ दुर्गंधमय क्रोध से किसको उद्वेग नहीं होता है। इसलिए ही पंडितों ने इसका दूर से ही त्याग किया है। और महान क्रोधाग्नि की ज्वालाओं के समूह से अधिकतया ग्रसित—जला हुआ, अविवेकी पुरुष तत्त्व से अपने को और पर को नहीं जान सकता। अग्नि जहाँ होती है वहाँ ईंधन को प्रथम जलाती है वैसे क्रोध उत्पन्न होते ही जिसमें उत्पन्न हुआ उसी पुरुष को प्रथम जलाता है। क्रोध करने वाले को क्रोध अवश्य जलाता है, दूसरे को जलाने में एकांत नहीं है उसे जलाये अथवा नहीं भी जलाये। अथवा अग्नि भी अपने उत्पत्ति स्थान को जलाती है दूसरे को जलाए वह नियम नहीं है। अथवा जो अपने आश्रय वाले को अवश्य जलाता है, वह अपनी शक्ति के योग से क्षीण हुआ महापापी क्रोधान्ध दूसरे की ओर आग फेंकता है और क्या कर सकता है? क्रोध रूपी कलह से कलुषित मन वाले जिस पुरुष का दिन क्रोध करने में ही जाता है, वह नित्य क्रोधी मनुष्य इस जन्म या पर- जन्म में सुख की प्राप्ति कैसे कर सकता है? वैरी भी निश्चय एक ही जन्म में अपकार करता है और क्रोध दोनों जन्मों में महाभयंकर अपकारी होता है। जिस कार्य को उपशम वाला सिद्ध करता है, उस कार्य को क्रोधी कदापि नहीं कर सकता, कारण कि कार्य करने में दक्षनिर्मल वह बुद्धि क्रोधी को कहाँ से हो सकती है? और भी कहा है
महापापी क्रोध उद्वेगकारी, प्रिय बंधुओं का नाश करने वाला, संताप कारक और सद्गति को रोकने वाला है। इसलिए विवेकी पुरुष कभी भी हजारों पंडितों द्वारा निंदनीय स्वभाव से ही पापकारी क्रोध के वश नहीं होते हैं। जीव क्रोध से प्राणी का अथवा प्राण का नाश करता है । मृषा वचन बोलता है, अदत्त ग्रहण करता है, ब्रह्मचर्य व्रत को भंग करता है, महाआरंभ और परिग्रह संग्रह करनेवाला भी होता है। अधिक क्या कहें? क्रोध से सर्व पाप स्थानक का सेवन होता है। उसमें निष्पक्ष तूं क्षमा रूपी तीक्ष्ण तलवार महा प्रतिमल्ल क्रोध को चतुराई से खत्म कर उपशम रूपी विजय लक्ष्मी को प्राप्त कर । क्रोध दुःखों का निमित्त रूप है और केवल एक उसका प्रतिपक्षी उपशम सुख का हेतुभूत है। ये दोनों भी आत्मा के आधीन हैं, इसलिए उसका उपशम करना ही यही श्रेष्ठ उपाय है। मन से भी क्रोध किया जाये तो नरक का कारण बनता है और मन से उसका उपशम किया हो तो वह मोक्ष के लिए होता है। यहाँ पर दोनों विषय में प्रसन्नचंद्र राजर्षि का दृष्टांत है ।। ५९२३ ।। वह इस
प्रकार :
प्रसन्नचंद्र राजर्षि की कथा
पोतनपुर के राजा प्रसन्नचंद्र ने उग्र विषधर सर्पों से भरे घट के समान राज्य को छोड़कर श्री वीर परमात्मा के पास दीक्षा स्वीकार की। फिर जगत गुरु के साथ विहार करते वे राजगृह में आये और वहाँ परि के समान दो भुजाओं को सम्यग् लम्बी कर काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहे। इसके बाद श्री जिनेश्वर भगवान को वंदन करने के लिए श्रेणिक राजा सैन्य सहित जा रहा था। दो अग्रसर दुर्मुख और सुमुख नाम के दो दूतों ने उस महाऋषि को देखा और सुमुख ने कहा कि - यह विजयी है और इनका जीवन सफल है, क्योंकि इन्होंने श्रेष्ठ राज्य को छोड़कर इस प्रकार दीक्षा स्वीकार की है। यह सुनकर दुर्मुख ने कहा कि - भद्र! इनकी प्रशंसा से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि स्वयं नपुंसक (कायर) है, निर्बल पुत्र को राज्य पर बैठाकर, शत्रुओं के भय से पाखंड स्वीकारकर वह इस तरह रहता है और राज्य, पुत्र तथा प्रजा भी शत्रुओं से पीड़ित हो रही है। इस तरह सुनकर तत्काल धर्म ध्यान की मर्यादा भूलकर प्रसन्नचंद्र मुनि कुपित होकर विचार करने लगे कि - मैं जीता हूँ, फिर मेरे पुत्र और राज्य पर कौन उपद्रव करने वाला है? मैं मानता हूँ कि सीमा के राजाओं की यह दुष्ट कारस्तानी है, इसलिए उनका नाश करके राज्य को स्वस्थ करूँगा । इस तरह काउस्सग्ग ध्यान में रहें मन से पूर्व के समान उनके साथ युद्ध करने लगे।
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