________________
श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-परिग्रह पापस्थानक द्वार के पाप द्वारा शोक से अत्यंत व्याकुल हुए। फिर बहुत धन देकर उन तीनों को वेश्याओं के हाथ में से छुड़ाकर उनको साथ लेकर नगर की ओर चलें।
समुद्र मार्ग में चलते दोनों मित्रों को ऐसी चिंता प्रकट हुई कि-हमने महाभयंकर अकृत्यकारी कार्य किया है, हम अपने स्वजनों को मुख किस तरह दिखायेंगे? इस तरह संक्षोभ के कारण लज्जा से दोनों मित्र परदेश में चले गये और उनकी माताएँ वहीं समुद्र में गिरकर मर गईं। वह अणुव्रतधारी श्रावक पुत्र माता को लेकर अपने नगर में गया और उसका सर्व व्यतिकर जानकर नगर के लोगों ने प्रशंसा की।
यह दृष्टांत सुनकर-हे सुंदर! परम तत्त्व के जानकार पुरुषों को भयजनक अब्रह्म (मैथुन) का त्याग करना चाहिए और आराधना के एक मनवाले तूं ब्रह्मचर्य का पालन कर।
इस तरह मैथुन नामक चौथा पाप स्थानक कहा अब पाँचवां परिग्रह पाप स्थानक को कहता हूँ।
(५) परिग्रह पाप स्थानक द्वार :- यह परिग्रह सभी पाप स्थानक रूपी महेलों का मजबूत बुनियाद है और संसार रूपी गहरे कुएँ की अनेक नीक का प्रवाह है। पंडितों द्वारा निंदित अनेक कुविकल्प रूपी अंकुरों को उगाने वाला वसंतोत्सव है और एकाग्रचित्तता रूपी बावड़ी को सुखाने वाली ग्रीष्म ऋतु की गरमी का समूह है। ज्ञानादि निर्मळ गुण रूपी राजहंस के समूह को विघ्नभूत वर्षा ऋतु है और महान् आरंभ रूप अत्यधिक अनाज उत्पन्न करने के लिए शरद ऋतु का आगमन है। परिग्रह स्वाभाविकता के आनंद रूप विशिष्ट सुख रूपी कमलिनी के वन को जलाने वाली हेमंत ऋतु है और अति विशुद्ध धर्मरूपी वृक्ष के पत्तों का नाश करने वाली शिशिर ऋतु है। मूर्छारूपी लता का अखंड मंडप है, दुःख रूपी वृक्षों का वन है, और संतोष रूपी शरद के चंद्र को गलाने वाला अति गाढ़ दाढ़ वाला राहु का मुख है। अत्यंत अविश्वास का पात्र है, और कषायों का घर है ऐसा परिग्रह मुश्किल से रोक सकते हैं, ऐसा ग्रह के समान किसको पीड़ा नहीं देता?
इसी कारण से ही बुद्धिमान धन, धान्य, क्षेत्र-जमीन, वस्तु-मकान, सोना, चाँदी, पशु, पक्षी, नौकर आदि तथा कुप्य वस्तुओं में हमेशा नियम करते हैं। अन्यथा यथेच्छ अनुमति देना, अतीव कष्ट से रोकने वाला, स्व-पर मनुष्यों को दान करने की इच्छा रोकने वाली और जगत में जय को प्राप्त यह इच्छा किसी तरह कष्ट द्वारा भी क्या पूर्ण होती है? (अर्थात् पूर्ण नहीं होती) क्योंकि इस संसार में जीव को एक सौ से, हजार से, लाख से, करोड़ से, राज्य से, देवत्व से और इन्द्रत्व से भी संतोष नहीं होता है। कोड़ी बिना का बिचारा गरीब कोड़ी की इच्छा करता है और कोड़ी मिलने के बाद रुपये को चाहता है और वह मिलने पर सोना मोहर की इच्छा करता है। यदि वह मिल जाती है तो उसमें एक-एक की उत्तरोत्तर वद्धि करते सौ सोना मोहर की इच्छा करता है. उसे भी प्राप्त कर हजार, और हजार वाला लाख की इच्छा करता है, लखपति करोड़ की इच्छा करता है और करोड़पति राज्य की इच्छा करता है, राजा चक्रवर्ती बनने की इच्छा करता है और चक्रवर्ती देवत्व की इच्छा करता है। किसी तरह उसे वह भी मिल जाए तो वह इंद्र बनने की इच्छा करता है और उतना मिलने पर भी इच्छा करे तो आकाश के समान अनंत होने से अपूर्ण ही रहती है।
कोड़िया के घाट के समान अक्रम से जिसकी इच्छा अधिक-अधिक बढ़ती है वह सद्गति को लात मारकर दर्गति का पथिक बनता है। बार-बार मापने पर भी आढक का माप मंडा नहीं बनता ये दोनों एक जात के छोटे बड़े माप हैं] इस तरह जिसके भाग्य में अल्प धन है वह क्या कोटीश्वर हो सकता है? क्योंकि पूर्व में जितने धन की प्राप्ति का कर्म बंध किय हो उसी मर्यादा से उतना ही धन प्राप्त करता है, द्रोणमेघ की वर्षा होने पर भी पर्वत के शिखर पर पानी नहीं कता है। इस तरह निश्चय यह हुआ की अनेक प्रकार की प्रवृत्ति करने
250
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org