Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 265
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति नामक प्रधन द्वार-सासु-मैथुन विरमण द्वार भाग। अहो! देखो, उसकी नाच करती वलय से युक्त प्रकट विकसित नाभि कमल और कंचुक को तोड़ते उसका बहुत बड़ा मरोड़! इसमें से एक-एक भी दुर्लभ है, तो उसके समूह का तो कहना ही क्या? अथवा संसार का सारभूत उन स्त्रियों का क्या वर्णन करना? कि जिसके चिंतन-स्मरण भी शतमूल्य, दर्शन सहस्र मूल्य, वार्तालाप कोटि मूल्य और अंग का संभोग अमूल्य है। इस तरह वह विचार करते हुए उसकी चिंता, विलाप और मन, वचन, काया की चेष्टाओं से उन्मत्त के समान, मूर्छित के समान और सर्व ग्रहों से चेतना नष्ट हुई हो इस तरह दिन या रात्री, तृषा या भूख, अरण्य या अन्य गाँव आदि, सुख या दुःख, ठण्डी या गरमी, योग्य या अयोग्य कुछ भी नहीं जानता है, किन्तु बायी हथेली में मुख को छुपाकर निस्तेज होकर वह बार-बार लम्बे निःश्वास लेता है, पछताता है, कम्पायमान होता है, विलाप करता है, रोता है, सोता है और उबासी खाता है। इस तरह अनंत चिंता की परंपरा से खेद करते कामी के दुर्गति का विस्तार करने वाले विकारों को देखकर सभी प्रकार के मैथुन को, बुद्धिमान द्रव्य से, देव संबंधी, मनुष्य संबंधी और तिर्यंच संबंधी, क्षेत्र से ऊर्ध्व, अधो और तिर्छ लोक में, काल से दिन अथवा रात्री तथा भाव से राग और द्वेष से मन द्वारा भी चाहना नहीं करना। मैथुन अनंत दोषों का, महापाप और सर्व कष्टों का कारण होने से उसका सर्वथा त्याग करना। क्योंकि इसकी चिंता करने से प्रायः पर-स्व स्त्री के भोगने के दोष-गुण के पक्ष को नहीं जानता, श्रेष्ठ बुद्धि वाले भी जंगली हाथी के समान मैथुन की इच्छा को रोक न सके। उसकी ऐसी मैथुन प्रति दृढ़ अभिलाषा प्रकट होती है, क्योंकि जीवों की, स्वभाव से ही मैथुन संज्ञा अति विशाल होती है। और वह प्रतिदिन बढ़ती है। इच्छा रूपी वायु द्वारा अति तेजस्वी ज्वाला वाली प्रचंड कामाग्नि किसी प्रकार शांत नहीं होती फिर उसके संपूर्ण शरीर को जलाती है, और इससे जलता जीव मन में उग्र साहस धारण करके अपने जीवन की भी परवाह न करके, बुजुर्ग की लज्जा आदि का भी अपमान करके मैथुन का सेवन करता है। इससे इस जन्म, परजन्म में अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। इस जन्म में वह हमेशा सर्वत्र शंकापूर्वक भ्रमण करता है। बाद में कभी किसी स्थान पर लोग यदि उसे व्यभिचार सेवन करते देख लेते हैं. तब क्षणभर में मरने के लिए पीडा का अनभव होता है. इस तरह दीन मख वाला है। और घर के लोगो द्वारा, स्त्री के द्वारा, मालिक अथवा नगर के कोतवाल से पकड़ा हुआ उसे मार पीटकर दुष्ट गधे पर बैठाया जाता है, उसके बाद उस रंक को उद्घोषणापूर्वक जहाँ तीन मार्ग का चौक हो, चार रास्ते हों, ऐसे चौक में बड़े राज्य मार्ग में घुमाते हैं उद्घोषणा करते हैं कि-भो, भो नागरिकों! इस शिक्षा में राजा आदि कोई अपराधी नहीं है, केवल अपने किये पापों का ही यह अपराधी है, इसलिए हे भाइयों! इस प्रकार के इन कर्मों को अन्य कोई करना नहीं! इस प्रकार मैथुन के व्यसनी को इस जन्म में हाथ-पैर का छेदन, मार, बंधन, कारागृह और फाँसी आदि मृत्यु तक के भी कौन-कौन से दुःख नहीं होते? और परभव संबंधी तो उसके दोष कितने प्रमाण में कहूँ? क्योंकि-मैथुन से प्रकट हुए पाप के द्वारा अनंत जन्मों में परिभ्रमण करना पड़ता है। इसलिए हे भाई! सत्य कहता हूँ कि सर्व प्रकार से मैथुन सेवन का सम्यक् प्रकार से त्याग कर दें, उसके त्याग से दुःख स्वभाव वाली दुर्गति का भी त्याग होता है। और भी कहा है कि-मैथुन निंदनीय रूप को प्रकट करने वाला, परिश्रम और दुःख से साध्य, सर्व शरीर में बहुत श्रम से प्रकट हुआ, पसीने से अति उद्वेग करने वाला, भय से वाचा को भी व्याकुल करने वाला, निर्लज्जों का कर्त्तव्य और जुगुप्सनीय है, इस कारण से ही गुप्त रूप में सेवन करने योग्य है, हृदयव्यापि क्षय आदि विविध प्रकार की व्याधियों का कारणभूत और अपथ्य भोजन के समान बल-वीर्य की हानि करने वाला है। किंपाक फल के समान भोगने योग्य वह आखिर में दुःखदायी, 248 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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