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समाधि लाभ द्वार-प्रेम पाप स्थानक द्वार-अर्हन्नक की पत्नी और अहमित्र की कथा
श्री संवेगारंगशाला __ अशुचि, अदर्शनीय, मैल से भरा हुआ, दुर्गंधमय देखने में दुःख होता है और अत्यंत लज्जास्पद, इसके कारण ही अत्यंत ढका हुआ तथा हमेशा अशुचि झरने वाला और ज्ञानी पुरुषों द्वारा निंदनीय, ऐसे स्त्री के गुप्त भाग में पराक्रमी पुरुष भी राग करता है। अतः राग के चरित्र को धिक्कार है। इस तरह शरीर के राग से उसकी मालिस और स्नान आदि द्वारा परिश्रम करता है वह ऐसा चिंतन नहीं करता कि इतना उपचार करने पर भी यह अपवित्र ही रहता है।
___इस तरह धन, अनाज, सोना, चाँदी, क्षेत्र, वस्तु में और पशु पक्षी आदि में राग से उस वस्तु की प्राप्ति के लिए स्वदेश से परदेश में जाता है और पवन से उड़े हुए सूखे पत्तों के समान अस्थिर चित्त वाला वह शारीरिक
और मानसिक असंख्य तीव्र दुःखों का अनुभव करता है। अधिक क्या कहें? जगत में जीवों को जो-जो अति कठोर वेदनावाला दुःख होता है वह सब राग का फल है। जो कुंकुम को भी अपने मूल स्थान से देश का त्याग रूप परावर्तन और चूरण होता है अथवा मजीठ को मूल में से उखाड़ना आदि उबालना तक के कष्ट होते हैं तथा कुसुंभा को तपाया जाता है, खंडन और पैर आदि से मर्दन होता है, वह उसमें रहे द्रव्य के राग की ही दुष्ट चेष्टा जानना। राग द्वारा दुःख, दुःख से आर्त्त-रौद्र ध्यान और उस दुर्ध्यान से जीव इस लोक और परलोक में दुःखी होता है। जो जीवों का सर्व प्रकार से विपरीत करने वाला एक राग ही है। अर्थात् इस संसार का मूल कारण एक राग ही है और कोई हेतु का समूह नहीं हैं। और मनुष्य रागादि पदार्थ को जहाँ-तहाँ से कष्ट के द्वारा प्राप्त कर जैसे-जैसे उसे भोगता है वैसे-वैसे राग बढ़ता जाता है। जो बिंदुओं से समुद्र को भर सकता है, अथवा ईंधन से अग्नि को तृप्त कर सकता है, तो राग की तृष्णा को प्राप्त करने वाला पुरुष भी इस संसार में तृप्ति को प्राप्त कर सकता है। परंतु किसी ने इस जगत में ऐसा किया हुआ देखा अथवा सुना भी नहीं है, उससे विवेक होने पर विवेकी को राग पर विजय में प्रयत्न करना चाहिए, यही युक्त है। जगत में जीवों को जो-जो बड़े परंपरा वाला सुख होता है वह राग रूपी दुर्जय शत्रु पर अखंड विजय का फल है। जैसे उत्तम रत्नों के समूह के सामने कांच की मणि शोभायमान नहीं होती हैं वैसे राग पर विजय में सामने देवी अथवा मनुष्य का श्रेष्ठ सुख अल्पमात्र भी शोभायमान नहीं होता है। इस राग पाप स्थानक के दोष में अर्हन्नक की पत्नी और उसके वैराग्य के गुण में उसका अर्ह मित्र देवर का दृष्टांत है। वह इस प्रकार है :
__ अर्हन्नक की पत्नी और अर्हमित्र की कथा
श्री क्षिति प्रतिष्ठित नगर में अर्हन्नक और अर्हमित्र नामक परस्पर दृढ़ प्रेमवाले दो भाई रहते थे। एक दिन तीव्र अनुराग वाली बड़े भाई की स्त्री ने छोटेभाई (देवर) को भोग करने की प्रार्थना की, और उसने बहुत बार रोका, फिर भी वह बलात्कार करती थी, तब उसने कहा कि क्या मेरे भाई को तूं नहीं देखती? इससे अनाचार वाली उसने पति को खत्म कर दिया और फिर उसने कहा-मैंने ऐसा कार्य किया है फिर भी मुझे क्यों नहीं चाहते? तब 'इस स्त्री ने मेरे भाई को मार दिया है' इस प्रकार निश्चय करके घर से वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने श्री भागवती दीक्षा स्वीकार की, तथा साधुओं के साथ अन्यत्र विहार किया।
वह स्त्री आर्त्तध्यान के आधीन होकर मरकर कुत्ती हुई। साधु समूह के साथ में विचरते अर्हमित्र भी उस गाँव में आया जहाँ कुत्ती रहती थी। इससे पूर्व स्नेह के वश वह कुत्ती उनके पास में रहने लगी, दूर करने पर भी साथ रहने लगी, इससे उपसर्ग मानकर अर्हमित्र मुनि रात को कहीं भाग गये। कुत्ती भी उसके वियोग में मरकर जंगल में बंदरी रूप में जन्म लिया और वह महात्मा भी किसी तरह विहार करते उसी जंगल में पहुँचे।।६१००।। वहाँ बंदरी ने उसे देखा और पूर्व राग से वह उससे लिपट गई, शेष साधुओं ने महामुश्किल से
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