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श्री संवेगरंगशाला
ममत्व विच्छेदन द्वार-पच्चस्खाण नामक सातवाँ द्वार पुष्पों का उद्यान समान संवेगरंगशाला नामक आराधना के नौ अंतर द्वार वाले तीसरे ममत्व विच्छेद द्वार में छट्ठा हानि नामक अंतर द्वार कहा है।
अब पानी के पोषण द्वारा वह क्षपक मुनि जिस तरह संवर करता है उसे अल्पमात्र कहते हुए पच्चक्खाण द्वार को कहते हैं ।।५४५४।। सातवा पच्चक्रवाण नामक द्वार :
स्वच्छ, चावल आदि का ओसामण (मांड), लेपकृत, अलेपकृत, कण वाला और कण रहित इस तरह छह प्रकार के जल को शरीर रक्षा के लिए योग्य कहा है। उसमें तिल, जौ, गेहूँ आदि अनाज के धोये हुए जल, गुड़-खांड के पात्र का धोया हुआ जल, इमली आदि का धोया हुआ खट्टा जल, इस प्रकार का दूसरा भी जो स्वकाय शस्त्र से अथवा परकाय शस्त्र से अचित्त हुआ हो, वह नौ कोटि से अर्थात् हनन, क्रयण, या पाचन, नहीं किया हो, नहीं करवाया हो या अनुमति नहीं दी हो, अति विशुद्ध केवल अन्य किसी की आशा की अपेक्षा बिना लोगों से मिला हुआ जल साधुओं के योग्य है। इस प्रकार से सहज स्वभाव से मिले हुए पानी द्वारा क्षपक मुनि सदा समाधि के लिए अपने संस्कार का पोषण करें, केवल खट्टे पानी से श्लेष्म, कफ आदि का क्षय होता है और पित्त का उपशम होता है, वायु के रक्षण के लिए पूर्व में कही विधि करनी चाहिए। पेट के मल की शुद्धि के लिए तिखे पानी का त्याग करके क्षपक मुनि को मधुर पानी पिलाना और मंद रूप में देना। इलायची, दालचीनी, केसर
और तमाल पत्र डाला हुआ सक्कर सहित उबालकर ठण्डे किए हुए दूध को समाधि स्थिर रहे उतना पिलाकर फिर उस क्षपक मुनि को सुपारी आदि मधुर द्रव्य दे कि जिससे जठराग्नि शांत होने से सुखपूर्वक समाधि को प्राप्त करें। अथवा गुरु महाराज की आज्ञा से बस्ती कर्म आदि से भी उदर शुद्धि करना, क्योंकि-अशांत अग्नि होने से उदर में पीड़ा उत्पन्न करती है। इसके बाद क्षपक मुनि जावज्जीव त्रिविध से आहार का त्याग की इच्छा करें तब उस समय निर्यामक आचार्य श्री संघ को इस प्रकार बतलाए-जावज्जीव (जब तक जीता रहूँगा तब तक) अनशन स्वीकार करने की इच्छा वाला यह क्षपक महात्मा मस्तक पर हस्त कमल जोड़कर आपको पादवंदन करता है
और विनति करता है कि-हे भगवंत! आप मेरे ऊपर इस तरह प्रसन्न हो-आशीर्वाद दो कि जिससे मैं इच्छित अर्थ अनशन को पार प्राप्त करूँ। इसके बाद प्रसन्न मन वाला श्रमण संघ क्षपक की आराधना के निमित्त और उपसर्ग रहित निमित्त कार्योत्सर्ग को करें। और फिर आचार्यश्रीजी संघ समुदाय के समक्ष चैत्यवंदनपूर्वक विधि से क्षपक मुनि को चतुर्विध आहार का पच्चक्खाण करा दे, अथवा यदि समाधि के लिए आगारपूर्वक प्रारंभ में त्रिविध आहार त्याग करें, उसके बाद में भी पानी का सदाकाल (जावज्जीव तक) त्याग करें। पानी के उपयोग करने में जो पूर्व में छह प्रकार का पानी कहा है वह उसे त्रिविध आहार के त्याग में कल्प (ले) सकता है।
इस तरह गुरु महाराज के पास से चारित्र के भार को उठाने वाला, सदा उत्सुकता रहित और सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में रागरहित जीव का पच्चक्खाण करने पर आश्रव द्वार बंध होता है और आश्रव का विच्छेद होने से तृष्णा का व्युच्छेदन होता है। तृष्णा व्युच्छेदन से जीव के पाप का उपशम होता है और पाप के उपशम से आवश्यक (सामायिक आदि) की शुद्धि होती है। आवश्यक शुद्धि से जीव दर्शन शुद्धि को प्राप्त करता है और दर्शन शुद्धि से निश्चय चारित्र शुद्धि को प्राप्त करता है। शुद्ध चारित्र वाला जीव ध्यान-अध्ययन की शुद्धि को प्राप्त करता है और ध्यान अध्ययन के विशुद्ध होने से जीव परिणाम की शुद्धि प्राप्त करता है, परिणाम विशुद्धि से कर्म विशुद्धि को प्राप्त करता है और कर्म विशुद्धि से विशुद्ध हुआ आत्मा सर्व दुःखों का क्षय करके सिद्धि को प्राप्त करता है।
इस तरह दुर्गति नगर के दरवाजे को बंद करने वाला संवेग मनरूपी भ्रमरों के लिए खिले हुए पुष्पों वाला 234
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