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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म विधि द्वार-पंडित मरण की महिमा
से अभिग्रह ग्रहण किया है जब तक वह पूर्ण नहीं होता है तब तक उस समय का रक्षण करो। फिर आप श्री की इच्छानुसार मैं आचरण करूँगी। यह सुनकर प्रसन्न हुआ राजा उसके चित्त विनोद के नाटक, खेल आदि को दिखाता समय पूर्ण करता था ।।३६९६।।
इधर नंद का जीव जो बंदर बना था उसे योग्य जानकर बंदर को नचाने वाले ने पकड़ा, और उसको नाटक आदि अनेक कला का अभ्यास करवाकर प्रत्येक गाँव, नगर में उसकी कलाएँ दिखाते उन खिलाड़ियों ने किसी समय उसे लेकर श्रीपुर नगर में आया। वहाँ घर-घर में उसे नचाकर वे राजमहल में गये और वहाँ उन्होंने उस बंदर को सर्व प्रयत्नपूर्वक नचाने लगे, फिर नाचते उस बंदर ने किसी तरह राजा के पास बैठी हुई सुंदरी को पूर्व के स्नेहभाव से विकसित एक ही दृष्टि से देखने लगा ।।३६०० ।। और 'मैंने इसको किसी स्थान पर देखा है' ऐसा बार-बार चिंतन करते उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो आया और सारा पूर्वजन्म का वृत्तान्त जाना। फिर परम निर्वेद को प्राप्त करते उसने विचार किया कि-हा! हा! अनर्थ के स्थान रूप इस संसारवास को धिक्कार हो, क्योंकि
वैसा निर्मल विवेक वाला, धर्म रागी भी और प्रति समय शास्त्रोक्त विधि अनुसार अनुष्ठान को करने वाला भी मैंने उस बाल अर्थात् अज्ञान मरण से ऐसी विषम दशा को प्राप्त की है। अब तिर्यंच जीवन में हूँ, अब मैं क्या कर सकता हूँ? अथवा ऐसा विचार करने से क्या लाभ? इस अवस्था के उचित भी धर्म कार्य करूँ, ऐसे जीवन से क्या है? ऐसा विचार करते उसे थका हुआ मानकर खिलाड़ि, उसे अपने स्थान पर ले गये और उसने वहाँ अनशन स्वीकार किया। उसके बाद श्री पंच परमेष्ठि मंत्र का बार-बार स्मरण करते शुद्ध भाव से मरकर देवलोक में महर्द्धिक देव बना। वहाँ अवधिज्ञान से पूर्व का वृत्तान्त जानकर, यहाँ आकर राजा को प्रतिबोध दिया और सुंदरी को भी प्रतिबोध होने से प्रव्रज्या स्वीकार करने के लिए आचार्य महाराज को सौंपा। इस तरह तिर्यंचपने को प्राप्त जीव को भी पंडित मरण निष्पाप सद्गति रूप नगर के महान् राज्य को देता है। पंडित मरण की महिमा :
आजम्मं पि करित्ता, कडमदं रइयपावपब्भारं । पच्छा पंडियमरणं, लहिऊण य सुज्झए जीवो ।।३७१०।।
समग्र जीवन तक भी दुर्ध्यान आदि करके पाप समूह का भोग करने वाला जीव अंत में पंडित मरण को प्राप्तकर शुद्ध होता है ।।३७१०।।
अनादि काल से संसार रूपी अटवी में फंसा हुआ जीव तब तक पार प्राप्त नहीं करता, जब तक पूर्व में ऐसा कभी भी नहीं मिला हुआ पंडित मरण प्राप्त नहीं होता। पंडित मरण से मरे हुए कई जीव तो उसी ही भव में, कई देवलोक में जाकर पुनः मनुष्य जन्म आकर, श्रावक कुल में जन्म लेकर, और दीर्घकाल साधु जीवन पालनकर. पंडित मरण से मरकर तीसरे जन्म में भी सिद्ध होते हैं। पंडित मरण से मरने वाला जीव नरक और तिर्यंच बिना उत्तम मनुष्य और देवलोक में विलास करके भी आखिर आठवें भव में सिद्ध हो जायगा। उसमें गृहस्थ अथवा साधु निर्जीव प्रदेश में रहे, विधिपूर्वक अतिचार रूपी सभी शल्यों का त्यागकर, सर्व आहार का त्यागकर, छह काय जीवों की रक्षा में तत्पर बनें। अन्य को क्षमा याचना करने में और स्वयं क्षमा देने में भी तत्पर, विराधना का त्यागी, चपलता रहित, जितेन्द्रिय, तीन दण्ड रूप शत्रुओं का विजेता, चार कषाय की सेना को जीतने वाला और शत्रु मित्र पर समभाव रखने वाला, इस तरह पंडित मरण से जो मरता है, वह निश्चय सम्यग् जानना।
___यह पंडित मरण लघुकर्मी समकित दृष्टि जीव को होता है, मिथ्यात्वी को नहीं होता। क्या इस संसार में 158 -
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