________________
श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म विधि द्वार-एलकाक्ष नगर का इतिहास करके और वसुभूति के स्वजनों को धर्म में स्थिर करके, श्री आर्य सुहस्तिसूरि उसके घर में से निकल गये। फिर सेठ ने अपने परिवार को कहा कि यदि किसी भी समय पर ऐसे साधु भिक्षा के लिए आयें तो उनको तुम आहार पानी आदि को निरुपयोगी कहकर आदरपूर्वक देना। इस प्रकार दान देने से बहुत फल मिलता है। इस तरह सेठ के कहने के बाद किसी दिन आर्य श्री महागिरिजी भिक्षा के लिए वहाँ पधारें। वसुभूति की दी हुई शिक्षा के अनुसार निरुपयोगी अन्न पानी के प्रयोग से दान देने में तत्पर बनें परिवार को देखकर, मेरुपर्वत के समान धीरता धारण करने वा ले, महासत्त्व वाले श्री आर्य महागिरि ने द्रव्य, क्षेत्र आदि का उपयोग देकर 'यह कपट रचना है' ऐसा जानकर और भिक्षा लिये बिना वापिस चले गये। फिर श्री आर्य सुहस्ति सूरि को कहा कि-आहार दोषित क्यों किया? उन्होंने कहा कि-किसने किया? तब श्री आर्य महागिरि ने कहा कि-सेठ के घर मुझे आते देखकर 'खड़े हुए' इत्यादि मेरा विनय करने से तुमने मेरा आहार दूषित किया। फिर उन दोनों ने साथ ही विहार करके अवंती नगरी में पधारें और वहाँ जीवित स्वामी जिन प्रतिमा को वंदनाकर आचार्य श्री महागिरिजी वहाँ से विहार करके गजाग्रपदगिरि की यात्रार्थ एलकाक्ष नगर की ओर गये। उस नगर का नाम एलकाक्ष जिस तरह पड़ा उसे कहते
हैं।
एलकाक्ष नगर का इतिहास :
___ पूर्व में इस नगर का नाम दशार्णपुर था। वहाँ एक उत्तम श्राविका मिथ्या दृष्टि की पत्नी थी। जैन धर्म में निश्चल मन वाली, संध्या समय में आहार त्याग के पच्चक्खाण को करती देखकर उसे उसके पति ने अपमानपूर्वक कहा कि-हे भोली! क्या कोई मनुष्य रात में आहार करता है कि जिससे तूं इस तरह नित्य रात्री के अंदर नियम करती है? यदि इस तरह नहीं खाने की वस्तु का भी पच्चक्खाण करने से कोई लाभ होता है तो कहो जिससे मैं भी पच्चक्खाण करूँ? उसने कहा कि पच्चक्खाण करने से विरति रूप गुण होता है, परंतु पच्चक्खाण लेकर खण्डन करने से महान दोष होता है। उसने कहा कि-हे भोली! क्या तूंने मुझे कभी भी रात्री में भोजन करते देखा है? अपमानपूर्वक ऐसा कहकर उसने पच्चक्खाण किया। फिर उस प्रदेश में रहनेवाली एक देवी ने विचार किया कि-अपमान करते इसके अविनय को दूर करूँ। फिर दिव्य लड्डु को भेंट रूप में लेकर वह देवी उसकी बहन के रूप से रात्री में वहाँ आयी और उसे खाने के लिए लड्डु दिया। उसे लेकर वह खाने लगा, तब श्राविका ने निषेध किया। इससे उसने कहा कि-हे भोली! तेरे कपट नियम से मुझे अब कोई प्रयोजन नहीं है। यह सुनकर हे पापी! हे शुभ सदाचार से भ्रष्ट! तूं जिन धर्म की भी हँसी करता है? ऐसा बोलती उत्पन्न हुए अतिक्रोध से लाल आँखों वाली, उस देवी ने रात्री भोजन में आसक्त उसके मुख पर ऐसे प्रहार किया कि जिससे उसकी आँखों की दोनों पुतली जमीन पर गिर पड़ी। तब 'अरे! यह महान् अपयश होगा।' ऐसी कल्पना से भयभीत बनी हुई उस श्राविका ने श्री जिनेश्वर देव के समक्ष काउस्सग्ग किया। इससे मध्य रात्री के समय देवी ने आकर कहा कि-मेरा स्मरण क्यों किया? उसने कहा कि-हे देवी! इस अपयश को दूर करो। इससे देवी ने उसी क्षण में ही मरे हुए बकरे की आँखों को लाकर उसकी दोनों आँखों में स्थापित की। फिर प्रभात होते स्वजन और नगर के लोगों ने आश्चर्य पूर्वक कहा कि-भो! यह क्या आश्चर्य है? कि तू एलकाक्ष अर्थात् बकरे की आँखवाला हुआ। इस तरह से वह सर्वत्र 'एलकाक्ष' नाम से प्रसिद्ध हुआ और फिर उसके कारण से नगर भी 'एलकाक्ष नगर' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अब पूर्व में 'दर्शाणकूट' नाम से जगत में प्रसिद्ध था। वह पर्वत भी जिस तरह 'गजाग्रपद' नाम से प्रसिद्ध हुआ ।।३९६४।। उसे कहते हैं :
1. अन्य ग्रन्थों में संभोगिकता पृथक् की ऐसा उल्लेख भी आता है।
168 Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org