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श्री संवेगरंगशाला
परगण संक्रमण द्वार-शिवभद्राचार्य का प्रबंध
फिर भी काल की परिहानि के दोष से ऐसा संपूर्ण गुण वाला नहीं मिले तो इससे एक, दो आदि कम गण वाला अथवा छोटे-बडे दोष वाला भी अन्य बहत बडे गुण वाले को उत्तम प्रकार के शिष्य की शोध करके यह योग्य है ऐसा मानकर ऋण मुक्ति की इच्छा वाले आचार्य अपने गण-समुदाय को पूछ करके उसे गणाधिपति रूप (आचार्य पद) में स्थापन करें, केवल इतना विशेष है कि-अपना और शिष्य का दोनों का भी जब लग्न श्रेष्ठ चंद्रबल युक्त हो, ऊँचे स्थान में रहे सर्व शुभ ग्रहों की दृष्टि लग्न के ऊपर पड़ती हो, ऐसे उत्तम लग्न के समय में गच्छ के हित में उपयुक्त वह आचार्य समग्र संघ साथ में शास्त्रोक्त विधि से उस शिष्य में अपना आचार्य पद का आरोपण (स्थापन) करें। फिर निःस्पृह उस आचार्य को सूत्रोक्त विधि से समग्र संघ समक्ष ही 'यह गण तुम्हारा है' ऐसा बोलकर गच्छ की अनुज्ञा करें अर्थात् नये आचार्य को गच्छ समर्पण करें। परंतु यदि आचार्य ऊपर कहे अनुसार सविशेष सभी गुण समूह से युक्त पुरुष के अभाव में अन्य साधुओं की अपेक्षा से कुछ विशेष सद्गुण वाले भी साधु को अपने पद पर स्थापन नहीं करें और उसे गच्छ-समुदाय भी नहीं सौंपे तो वह शिव भद्राचार्य के समान अपने हित को और गच्छ को भी गुमा देता है ।।४२१२।। उसकी कथा इस प्रकार है :
शिवभद्राचार्य का प्रबंध कंचनपुर नगर में श्रुतरूपी रत्नों के महान् रत्नाकर, महान् भाग्य वाले और अनेक शिष्यों रूप गच्छ के नेत्र रूप शिवभद्र नाम से आचार्य थे। वे महात्मा एक समय, मध्यरात्री के समय में आयुष्य को जानने के लिए जब आकाश को देखने लगे, तब अकस्मात् उन्होंने उछलती कांति के प्रवाह से समग्र दिशा चक्र को उज्ज्वल करते दो चंद्र को समकाल में देखा। इससे क्या मति भ्रम से दो चंद्र देखा है अथवा क्या दृष्टि दोष है? या क्या कृत्रिम भय है? ऐसे विस्मित चित्त वाले उन्होंने दूसरे साधु को उठाया और कहा कि-हे भद्र! क्या आकाश में तुझे दो चंद्र मण्डल दिखते हैं। उसने कहा कि मैं एक ही चंद्र को देखता हूँ। तब सूरिजी ने जाना कि-निश्चय ही जीवन का अंत आ गया है। इससे मैंने पूर्व में नहीं देखा हुआ, यह उत्पात हुआ है। क्योंकि-चिरकाल जीने वाला मनुष्य ऐसा दूसरों का आश्चर्य कारण और अत्यंत अघटित उत्पात को कभी भी नहीं देखता है अथवा ऐसे विकल्प करने से क्या लाभ? उत्पात के अभाव में भी मनुष्य तृण के अंतिम भाग में लगा हुआ जल-बिंदु देखने पर अपने जीवन को चिरकाल रहने का नहीं मानता। इससे प्रति समय नाश होते जीवन वाले प्राणियों को इस विषय में आश्चर्य क्या है? अथवा व्याकुलता किसलिए? अथवा संमोह क्यों होवे? उल्टा चिरकाल निर्मल शील से शोभित उत्तम घोर तपस्या वाले तपस्वियों को तो परम अभ्युदय में निमित्त रूप मरण है। परंतु पाथेय बिना का लंबे पंथ के मुसाफिर के समान जो परभव जाने के समय सद्धर्म को उपार्जन करने वाला नहीं है, वह दुःखी होता है। इसलिए मैं उत्तम गुण वाले सभी साधुओं के नेत्र को आनंद देने वाले एक मेरे शिष्य के ऊपर गच्छ का भार रखकर मैं अत्यंत विकृष्ट उग्र विविध जात की तपस्या से काया को सूखाकर एकाग्र मनवाला दीर्घ साधुता का फल प्राप्त करूँ।
परंतु मेरे इन शिष्यों में शास्त्र के परमार्थ को जानने में कोई भी कुशल नहीं है, कोई स्वभाव से ही क्रोधातुर है, कोई रूप विकल है, कोई शिष्यों का अनुवर्तन करवाने में अज्ञ है, कोई कलह प्रिय है, कोई लोभी, कोई मायावी है और कोई बहुत गुण वाला है, परंतु अभिमानी है। हा! क्या करूँ? ऐसा कोई सर्वगुण संपन्न नहीं है कि जिसके ऊपर यह गणधर पद का आरोपण करूँ। शास्त्र में कहा है कि-'जानते हुए भी स्नेह राग से जो यह गणधर पद कुपात्र में स्थापन करता है, वह शासन का प्रत्यनिक है।' इस तरह शिष्यों के प्रति अरुचित्व होने के कारण इस प्रकार के कई गुणों से युक्त होने पर भी शिष्य समुदाय की अवगणना कर और भावी अनर्थ का
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