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परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-परगण संक्रमण विधि
श्री संवेगरंगशाला भी प्रस्तुत कार्य में समर्थ, भार को वहन करने वाले, महामति वाले गीतार्थ, उत्साह में वृद्धि करने वाले, भैरव आदि के सामने आते भयों में भय रहित, संवेगी, क्षमा सहन करने वाले और अति विनित ऐसे अनेक साधु हैं। इस तरह उत्तम साधुओं के कहने से किसी आचार्य महाराज के आगे कहते गुण-दोष पक्ष को-लाभ-हानि का तारतम्य का बार-बार विचारकर वही इच्छित कार्य को करें और किसी अन्य आचार्य के द्वारा कही हुई विधि अनुसार से अपने गच्छ को पूछकर बढ़ते परिणाम से आराधना के लिए परगण में प्रवेश करें, क्योंकि अपने गच्छ में रहने से
१. आज्ञा कोप, २. कठोर वचन, ३. कलह करण, ४. परिताप, ५. निर्भयता, ६. स्नेह राग, ७. करुणा, ८. ध्यान में विघ्न और ९. असमाधि होती है।
जैसे कि अपने गच्छ में उड्डाहकारी स्थविर, कलह करने वाले छोटे साधुओं और कठोर नये दीक्षित यदि आचार्य की आज्ञा पर कोप, अनादर करे, तो इससे असमाधि होती है। परगच्छ में रहे आचार्य का तो उन साधुओं के प्रति व्यापार (अधिकार) कम नहीं होता है, इसलिए आज्ञा का लोप करे तो भी असमाधि किस तरह हो सकती है? वहाँ असमाधि नहीं होती है।
किसी क्षुल्लक साधु को, स्थविर को और नये साधुओं को असंयम में प्रवृत्ति करते देखकर वह आचार्य कठोर वचन भी कहे और बार-बार ऐसी प्रेरणा करने पर सहन नहीं करने से उनके साथ कलह भी हो जाता है, इससे आचार्य को और उन साधुओं को संताप आदि दोष भी लगता है, तथा अपने गण समुदाय में रहने पर आचार्य को शिष्यादि के प्रति ममत्व दोष के कारण असमाधि होती है। एवं अपने गच्छ में रोग आदि से साधुओं को जो पीड़ा आदि को प्राप्त करते देखें तो इससे आचार्य को दुःख, स्नेह अथवा असमाधि होती है। अति दुःसह तृष्णा या क्षुधादि होने से अपने गच्छ में विश्वास प्राप्त करने वाला वह आचार्य निर्भय होकर कुछ अकल्पनीय वस्तु की याचना करे अथवा उसका उपयोग करें। आत्यन्तिक वियोग-मरण के समय पर अनाथ साध्वियों को, वृद्ध मुनियों को और अपनी गोद में उछलते बाल साधुओं को देखकर आचार्य को उनके प्रति स्नेह उत्पन्न हो, तथा क्षुल्लक साधु अथवा क्षुल्लक साध्वियाँ निश्चय से करुणाजनक वचनादि यदि बोलें, रोवें तो आचार्य को ध्यान में विघ्न अथवा असमाधि होती है। शिष्य-वर्ग आहार पानी अथवा सेवा शुश्रूषा में यदि प्रमाद करे तो आचार्य को असमाधि होती है। अपने गण में रहने से नूतन आचार्य को और अनशन स्वीकार करने वाले को अप्रशम से अधिकतः ये दोष लगते हैं, इस कारण से वह परगण में जाता है। परगण के साधु विद्वान हैं और भक्ति वाले भी हैं, परंतु अपने गच्छ को छोड़कर, ये महात्मा हमारी आशा लेकर यहाँ पधारे हैं। ऐसा विचार करके भी परम आदरपूर्वक सर्वस्व शक्ति को छुपाये बिना उत्कृष्ट भक्तिपूर्वक उनकी सेवा में दृढ़तापूर्वक वर्तन करे और गीतार्थ एवं चारित्र शील आचार्य भी अपने समुदाय को पूछकर आये हुए उस आगन्तुक का सर्वथा आदरपूर्वक निर्यामक बनें और संविज्ञ. पापभीरु तथा श्री जिन वचन के सर्व सार को प्राप्त करने वाले उस आचार्य के चरणकमल में (निश्रा में) रहता हुआ आगन्तुक भी अवश्य आराधक बनता है।
इस तरह शुद्ध बुद्धि-सम्यक्त्व की संजीवनी औषधि तुल्य और मृत्यु के सामने युद्ध में जय पताका प्राप्त कराने में निर्विघ्न हेतुभूत यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वारा वाला गण संक्रम नामक दूसरे द्वार में परगण संक्रम नामक चौथा अंतर द्वार कहा है।
इस तरह परगण में संक्रम करने पर भी यथोक्त पूर्व में कहा है ऐसा सुस्थित (आचार्य) की गवेषणा प्राप्ति बिना इष्ट कार्य की सिद्धि नहीं होती है, इसलिए अब उसका निरूपण करते हैं ।।४६३०।।
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