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परिकम विधि द्वार-संलेखना नामक पन्द्रहवाँ प्रतिद्वार
श्री संवेगरंगशाला संलीनता :- अर्थात् संवर करना अथवा अपने अंगोपांगों को सिकोड़ना, संकोच करना संलीनता है। उसमें प्रथम वसति संलीनता है, वह इस प्रकार-वृक्ष के नीचे, आराम गृह में, उद्यान में, पर्वत की गुफा में,. तापस आदि के आश्रम में, प्याऊ और श्मशान में, शून्य घर में, देव कुलिका में अथवा माँगने पर दूसरे को दिये हुए मकान में उद्गम, उत्पादन और ऐषणा दोष से रहित और इससे ही मूल से अंत तक में साधु के निमित्त अकृत, अकारित और अनुमति बिना की होती है। पुनः वह वसति भी स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित होती है, शीतल या उष्ण, ऊँची, नीची या सम, विषम भूमि वाली होती है, नगर, गाँव आदि के अंदर अथवा बाहर हो, जहाँ मंगल या पापकारी शब्दों के श्रवण से ध्यानादि में स्खलना या स्वाध्याय, ध्यान में विघ्न न होता हो, ऐसी वसति को विविक्त शय्या संलीनता तप कहते हैं। क्योंकि ऐसी वसति में प्रायः स्व-पर उभय से होने वाले रागद्वेषादि दोष उत्पन्न नहीं होते हैं। अब इन्द्रिय संलीनता कहते हैं कि-ऊपर के कथन अनुसार गुणकारी वसती में रहते हुए भी इन्द्रिय आदि को वश करके संलीनता से आत्मा का सम्यग चिंतन करें। इन्द्रिय को शब्दादि कोई ऐसा विषय नहीं है कि विविध विषय में प्रेमी और हमेशा अतृप्त रहने वाली इन्द्रिय जिसे भोगकर तृप्ति प्राप्त कर सके।
इन विषयों में एक-एक विषय भी संयमरूपी आत्मा का घात करने में समर्थ है तो यदि पाँचों का एक ही साथ भोग करे तो उसकी कुशलता कैसे रह सकती है? जैसे निरंकुश घोड़ों से सारथी संग्राम भूमि में निश्चय ही विडम्बना प्राप्त करता है, वैसे ही निरंकुश इन्द्रियों से भी इस जन्म, परजन्म में आत्मा अनर्थ-अहित प्राप्त करती है। महापुरुषों से सेवित क्रिया मार्ग से भ्रष्ट हुआ, इन्द्रिय निग्रह नहीं करने वाले को इस संसार में दारुण दुःख को देने वाले अन्य भी अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं। इत्यादि अति दुःख के विपाक का अपनी बुद्धि से सम्यग् विचार करके धीर पुरुष को विषयों में रसिक इन्द्रियों की संलीनता करनी चाहिए। और उस संलीनता का इष्ट-अनिष्ट विषयों में सोम्य भाव-वैराग्य भाव से राग-द्वेष के समय को छोडने योग्य जानना। तथा उस-उस विषयों को सुनकर, देखकर, सेवनकर, सूंघकर और स्पर्श करके भी जिसको रति या अरति नहीं होती उसे इन्द्रिय संलीनता कहते हैं। इसलिए विषयों रूपी गाढ़ जंगल में निरंकुश जहाँ-तहाँ परिभ्रमण करती इन्द्रिय रूपी हाथी को ज्ञान रूपी अंकुश से वश करना चाहिए। अब मन संलीनता कहते हैं।
___ इसी तरह धीर पुरुष बुद्धि बल से मन रूपी हाथी को भी वैसे किसी उत्तम उपाय से वश करे कि जिससे शत्रु पक्ष-मोह को जीतकर आराधना रूपी विजय ध्वजा को प्राप्त करें। इसी प्रकार शत्रु वेग के समान कषायों को और योगों के विस्तार वेग को भी रोककर बुद्धिमान उसकी भी निष्पाप संलीनता करें। इस तरह सम्यग् व्यापार में प्रवृत्ति करने वाला, प्रशस्त योग से संलीनता को प्राप्त करने वाला, पाँच समिति से समित, और तीन गुप्ति से गुप्त बना मुनि आत्महित में तत्पर बनता है। असंयमी जीव अति लम्बे काल में जो कर्मों को खत्म करते हैं उसे संयत तपस्वी अन्तमुहूर्त में खत्म करते हैं।
तवमवि तं कुज्जा सो, जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ। जेण य न जोगहाणी, मणनिव्वाणी य होइ जओ ।।४०७० ।।
वह तप भी ऐसा करना कि जिससे मन अनिष्ट का चिंतन न करे, संयम योगों की हानि न हो और मन की शांति वाला हो। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को और धातुओं (प्रकृति) को जानकर उसके अनुसार तप करें, कि जिससे वात, पित्त, कफ क्षुब्ध न हो। अन्यथा ऐसे तप की शक्यता न हो, तो उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोष से रहित, प्रमाण अनुसार, हल्का विरस और रुखा आदि आहार पानी आदि से अपना निर्वाह करें और अनुक्रम से आहार को कम करते शरीर की संलीनता करें, उसमें तो शास्त्राज्ञा से आयंबिल को भी उत्कृष्ट तप
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