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परिकर्म विधि द्वार-संलेखना नामक पन्द्रहवाँ प्रतिद्वार
श्री संवेगरंगशाला
अपने-अपने विषय में आसक्त, इन्द्रिय, कषाय तथा योग का निग्रह करना उस संलेखना को ज्ञानी पुरुषों ने भाव संलेखना कही हैं और उसमें साधुता के चिर उपासक ज्ञानी भगवंतों ने विशेष क्रिया के आश्रित अनशन आदि तप द्वारा संलेखना इस प्रकार कही है - ( १ ) अनशन, (२) ऊनोदरिका, (३) वृत्ति संक्षेप, (४) रस त्याग, (५) काय क्लेश और विविक्त शय्या, इन्द्रिय तथा मन का निग्रह आदि, (६) संलीनता, इसका वर्णन आगे करते हैं।
अनशन :- यह दो प्रकार का है सर्व और देश। इसमें संलेखना करने वाला 'भवचरिम' अर्थात् जीवन पर्यंत का पच्चक्खाण करता है उसे सर्व अनशन कहते हैं। यथाशक्ति उपवास आदि तप करना वह देश अनशन कहलाता है।
ऊनोदरिका :― इसके भी दो भेद हैं द्रव्य और भाव। उसमें द्रव्य ऊनोदरिका उपकरण और आहार पानी में होती है। वह जिन कल्पी आदि को अथवा जिन कल्प के अभ्यास करने वाले को होती है। संयम का अभाव हो, इसलिए उपकरण ऊणोदरिका दूसरे को नहीं अथवा अधिक उपकरणादि का त्याग करने रूप, वह स्थविर कल्पी आदि सर्व को भी होती है। क्योंकि कहा भी है कि - जो संयम में उपकार करता है वह निश्चय से उपकरण जानना । और जो अयतना वाला, अयतना से अधिक धारण करें वह अधिकरण जानना । पुरुष का निश्चय आहार बत्तीस कौर का माना जाता है और स्त्रियों को अट्ठाईस कौर माने गये हैं। इस कौर का प्रमाण मुर्गी के अण्डे समान, अथवा मुख विकृत किये बिना स्वस्थता से मुख में डाल सके उतना ही जानना। इस तरह कौर की मर्यादा बाँधकर श्री जिनेश्वर और श्री गणधरों ने आहार आदि का ऊणोदरिका - अर्थात् जिसमें उदर के लिए पर्याप्त आहार से कम लिया जाये, यानि उदर ऊन = कम रखा जाये । वह ऊणोदरिका कहलाती है। वह अल्पाहार आदि पाँच प्रकार के कहे हैं। आठ कौर का आहार करना वह प्रथम अल्पाहार ऊनोदरी है, बारह कौर लिये जायें वह दूसरा उपार्ध ऊणोदरी है, सौलह कौर लिये जायें तो वह तीसरा द्विभाग ऊणोदरी है, चौबीस कौर तक लेने से चौथा प्राप्ति (चतुर्थ भाग) ऊनोदरी है और इकत्तीस कौर तक ग्रहण करे वह पाँचवां किंचिदुण ऊनोदरी जानना । अथवा अपने प्रमाण अनुसार आहार में एक-एक कौर आदि कम करते हुए आखिर में एक कौर तक आना और उसमें आधा कौर, कम करते-करते आखिर में एक दाना ही लेना, यह सब द्रव्य ऊनोदरी है। श्री जिनवाणी के चिंतन द्वारा हमेशा क्रोधादि कषायों का त्याग करना उसे श्री वीतराग देवों ने भाव ऊनोदरी कहा अब वृत्ति संक्षेप कहते हैं।
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वृत्ति संक्षेप :- जिससे जीवन टिक सके उसे वृत्ति कहते हैं । उस वृत्ति का संक्षेप करके गौचरी (आहार) लेने के समय दत्ति-परिमाण करना अथवा एक, दो, तीन आदि घर का अभिग्रह (नियम) करना, पिंडेसणा और पाषणा के प्रमाण का नियम करना, अथवा प्रतिदिन विविध अभिग्रह स्वीकार करना, उसे वृत्ति संक्षेप जानना । वह अभिग्रह पुनः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी होता है। उसमें आज मैं लेप वाली अथवा लेप बिना का अमुक द्रव्य ग्रहण करूँगा या अमुक द्रव्य द्वारा ही ग्रहण करूँगा । इस प्रकार मन में अभिग्रह करना वह द्रव्य अभिग्रह जानना । तथा शास्त्रोक्त गोचरी भूमि के आठ द्वार कहे हैं, उसमें से केवल देहली के बाहर या अंदर अथवा अपने गाँव या परगाँव से । उसमें इतने घर में अथवा अमुक घरों में ग्रहण करूँगा इत्यादि क्षेत्र के कारण नियम लेना वह क्षेत्र अभिग्रह जानना । गौचरी भूमि के शास्त्रों में आठ भेद कहे हैं - (१) ऋजुगति, (२) गत्वा प्रत्यागति, (३) गौमूत्रिका, (४) पतंग वीथि, (५) पेटा, (६) अर्द्ध पेटा, (७) अभ्यन्तर शंबूका और (८) बाह्य
1. जं वट्टइ उवयारे, उवगरणं तं खु होइ नायव्वं । अइरेगं अहिगरणं अजओ अजयं परिहरंतो ||४०२३ ||
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