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परिकर्म द्वार-त्याग नामक दसवाँ द्वार
श्री संवेगरंगशाला
वचन आदि सामग्री को प्राप्त कर पुरुष को शाश्वत सुख में एक रसवाला बनना चाहिए। भव्य जीवों को आज जो संसार का सुख है, वह कल स्वप्न समान केवल स्मरण करने योग्य बन जाता है। इस कारण से पंडितजन उपसर्ग बिना के मोक्ष के शाश्वत सुख की इच्छा करते हैं। चक्रवर्ती और इन्द्र के सुख को भी ज्ञानियों ने तत्त्व से दुःख स्वरूप कहा है, क्योंकि-वह परिणाम से भयंकर और अशाश्वत है। अतः मुझे उस सुख से क्या प्रयोजन है? शाश्वत सुख की प्राप्ति यह अवश्य श्री जिन आज्ञा के आराधना का फल है। अतः श्री जिन वचन से विशुद्ध बुद्धिपूर्वक उस आज्ञा पालन में उद्यम करूँ। इतने समय में तो सामान्यता से श्रमण जीवन पालन किया, अब वर्तमान काल में कुछ विशिष्ट क्रिया की साधना करूँ! क्योंकि-पश्चात्ताप से पीड़ित, धर्म की प्राप्ति वाला, दोषों को दूर करने की इच्छा वाला पासत्था आदि दुःशील भी उस विशिष्ट आराधना के लिए योग्य है। मेरे लिए तो वह करणीय है ही। और शरीर बल हमेशा क्षीण हो रहा है, पुरुषार्थ और वाणी शक्ति भी नित्य विनाश हो रही है तथा वीर्य-सामर्थ्य भी हमेशा नाश हो रहा है, कान की शक्ति सदैव कम हो रही है, नेत्र का तेज सदा खत्म हो रहा है, बुद्धि नित्य घट रही है और आयुष्य भी हमेशा खत्म हो रहा है।
अतः जब तक बल विद्यमान है, वीर्य विद्यमान है, पुरुषाकार विद्यमान है और पराक्रम विद्यमान है, जब तक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती और जब तक द्रव्य, क्षेत्रादि सामग्री अनुकूल है, तब तक जिनकल्प आदि कुछ भी उग्र मुनिचर्या का आचरण करूँ, अथवा विशिष्ट संघयण के विषय वाली यह चर्या हमारे योग्य नहीं है, इसलिए वर्तमान काल के साधुओं के संघयण के अनुरूप विशिष्ट कर्तव्य का मैं विधिपूर्वक स्वीकार करूँ, क्योंकि-दुर्लभ मनुष्य जन्म का फल यही है। इस तरह केवल सामान्य मुनि के समान ही नहीं, परंतु मुनियों में वृषभ मुनि भी अपनी अवस्था के अनुरूप धर्म जागरण का मनोरथ पूर्ण करते हैं, जैसे कि-मैंने अति दीर्घ दीक्षा पर्याय पालन किया, वाचना भी दी, शिष्यों को तैयार किया, ज्ञान क्रियाशील बनायें और उनके उचित मेरा कर्तव्य का पालन भी किया। इस तरह मेरी भूमिका के उचित जो भी कार्य था, वह क्रमानुसार किया है अब मुझे कुछ भी उसे विशेषतया करना चाहिए। अत्यन्त दुष्ट पराक्रमवाला, प्रमादरूप शत्रु सैन्य की पराधीनता से पूज्यों के प्रति मेरे करने योग्य कार्य नहीं किया और नहीं करने योग्य कार्य को किया। इन सबको छोड़कर अब दीर्घकाल तक चरण-करण गुणों को पालने वाले और दीर्घकाल श्री जिनेन्द्र धर्म की प्ररूपणा करने वाले मुझे अब विशेषतया आत्महित को करना है, वही कल्याणकारी है। किन्तु श्रीजिन आगम के रहस्यों के जानकार और प्रशमादि गुण समूह से अलंकृत शिष्य को मेरे सूरिपद पर स्थापन कर और साधु-साध्वी समुदाय को सम्यग् उसकी निश्रा में स्थापितकर, सामर्थ्य और आयुष्य विद्यमान रहते हुए आत्मा के बल और वीर्य को छुपाये बिना मैं यथालन्द चारित्र को, परिहार विशुद्धि चारित्र को अथवा जिनकल्प को स्वीकार करूँगा, अथवा तो पादपोपगमन, इंगिनी या भक्त परिज्ञा आदि कोई अनशन करने का स्वीकार करूं। इस प्रकार चिंतन कर और प्रयत्नपूर्वक उसका प्राथमिक अभ्यास कर शेष महान आराधना की यदि अशक्ति हो, तो भक्त परिज्ञा का निर्णय करें।
इस तरह सम्यक्त्व की प्राणदात्री तुल्य और मोक्ष नगर के मुसाफिरों के वाहन सदृश संवेगरंगशाला नाम की आराधना के प्रथम परिकर्म द्वार के दो प्रकार के परिणाम नामक नौवाँ प्रतिद्वार में साधु परिणाम नाम का यह दूसरा प्रकार भी कहा और उसे कहने से मूल परिकर्म विधिद्वार का दो भेद वाला यह नौवाँ परिणाम नाम का अंतर द्वार पूर्ण हुआ ।।३३७९।। त्याग नामक दसवाँ द्वार :इस तरह शुभ परिणाम से युक्त भी प्रस्तुत आराधक जीव विशिष्ट त्याग बिना आराधना की साधना में
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