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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार-साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान
सविशेष भावना वाला होता है, वह अनुभव सिद्ध है। जैसे कि-परस्पर विनय करना, परस्पर सारणा-वारणादि करना, धर्म-कथा, वाचना, पृच्छना आदि स्वाध्याय करना, स्वाध्याय से थके हुए को विश्रांति देना, और धर्म बन्धु एक दूसरे का परस्पर सुख-दुःख आदि पूछना, भूले हुए सूत्र, अर्थ और तदुभय का परस्पर पूछना, बताना, स्वयं देखी या सुनी हुई सामाचारी को समझाना। परस्पर सुने हुए अर्थ को विभागपूर्वक उस विषय में सम्यक् स्थापन करना, उसका निर्णय करना, और शास्त्रोक्त योग विधि का परस्पर निरूपण करना, एक पौषधशाला में मिलने से कोई हमेशा कर सकता हो, कोई नहीं कर सकता हो। ऐसी धर्म की बातों को परस्पर पूछने का होता है, जो कर सकते हो, उनकी प्रशंसा कर सकते हैं और जिनको करना दुष्कर हो, उनको उस विषय में शास्त्रविधि अनुसार उत्साह बढा सके। इस तरह परस्पर प्रेर्यप्रेरक भाव से गणों का श्रेष्ठ विकास होता है। इसलिए ही व्यवहार सूत्र में राजपुत्रादि को भी एक पौषधशाला में धर्म का प्रसंग करने को बतलाया है। इस तरह अनेक उत्तम श्रावकों को सद्धर्म करने के लिए निश्चय ही सर्व साधारण एक पौषधशाला बनाना योग्य है। अब अधिक कहने से क्या लाभ? ।।२९०० ।। गुरु के उपदेश से यह पौषधशाला द्वार कहा। अब दर्शन कार्य द्वार को कुछ अल्पमात्र कहता
१०. दर्शन कार्य द्वार :
यहाँ पर चैत्य संघ आदि का अचानक ऐसा कोई विशिष्ट कार्य किसी समय आ जाये तो वह दर्शन कार्य जानना। वह यहाँ अप्रशस्त और प्रशस्त भेद से दो प्रकार का जानना, उसमें जो धर्म विरोधी आदि द्वारा जैन भवन या प्रतिमा का तोड़-फोड़ करना इत्यादि उस सम्बन्धी कार्य करना अथवा धर्मद्वेषी ने संघ को उपद्रव करना या क्षोभरूप कार्य करना, वह अप्रशस्त जानना। और देव द्रव्य सम्बन्धी श्रावक आदि से करवाना, इत्यादि उस सम्बन्धी कार्य करना, वह प्रशस्त जानना। इन दोनों प्रकार में भी प्रायः राजा आदि के दर्शन-मिलने से हो सकता है। उस राजादि को मिलने का कार्य भेंट आदि दिये बिना नहीं होता है, इसलिए जब दूसरी ओर ऐसा धन नहीं मिले तो उचित कार्य के जानकार श्रावक साधारण द्रव्य से भी उसे देने का विचार करें। ऐसा करने से इस लोक में कीर्ति और परलोक में सद्गति की प्राप्ति इत्यादि लाभ होता है। तो उभयलोक में कौन-कौन से गुण लाभ नहीं होते? इस कार्य में यथायोग्य प्रयत्न करना चाहिए। उसे- (१) चैत्य, (२) कुल, (३) गण, (४) साधु, (५) साध्वी, (६) श्रावक, (७) श्राविका, (८) आचार्य, (९) प्रवचन, और (१०) श्रुत, इन सबका भी कार्य करणीय है। क्योंकि साधारण द्रव्य का खर्च जिनमंदिर आदि इन दस में ही करने को कहा है। इसलिए, धन्यात्माओं को ही निश्चय इस विषय में बुद्धि प्रकट होती है।
यहाँ पर किसी को ऐसी कल्पना हो कि-यह दस स्थान जिन कथित सत्र में किस स्थान पर कहे है? और जिन के बिना अन्य का कहा हुआ प्रमाणभूत नहीं है। तो उसे इस तरह समझो कि-निश्चय रूप से इन दस को समुदित–एकत्रित कहीं पर नहीं कहा है, परंतु भिन्न-भिन्न रूप में सूत्र के अंदर कई स्थान पर कहा ही है और सूत्र में चैत्यद्रव्य, साधारणद्रव्य इत्यादि वचनों से साधारण द्रव्य को स्पष्ट अलग बतलाया ही है, तो अर्थापत्ति से उसको खर्च करने का स्थान भी निश्चय ही कहा है। इस तरह कुशल अनुबंध का एक कारण होने से भव्य जीवों के हित के लिए आगम के विरोध बिना-आगम के अनुसार हम ने यहाँ उस स्थान को ही जिनमंदिरादि रूप दस प्रकार के विषय को विभाग द्वारा स्पष्ट बतलाया है। इन जिनमंदिरादि स्थानों में एक-एक स्थान की भी सेवा पुण्य का निमित्त बनती है, तो वह समग्र की सेवा का तो कहना ही क्या? अर्थात् अपूर्व लाभ है। यह साधारण द्रव्य प्राप्ति के लिए प्रारम्भ करते समय से ही आत्मा को उसी दिन से जिनमंदिर आदि सर्व की
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