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परिकर्म द्वार पुत्र प्रतिबोध नामक चौथा द्वार
श्री संवेगरंगशाला
सेवा चालु होती है। क्योंकि उसका अनुबंधपूर्वक चित्त का राग प्रारंभ से ही एक साथ में उनके विषय भूत सर्व द्रव्य, क्षेत्र आदि में पहुँच जाते हैं। इसलिए सर्व प्रकार से विचारकर, अपने वैभव के अनुसार कुछ भी अपने धन से वे साधारण द्रव्य को एकत्रित करना प्रारंभ करते हैं। जो अन्याय आदि किये बिना विधिपूर्वक प्रतिदिन उसकी वृद्धि करते हैं, अचलित चित्तवाला जो महासत्त्वशाली उसमें मोह रखें बिना उसका रक्षण करता है। और जो पूर्व कहे अनुसार क्रम से निश्चय उसे उस-उस स्थान पर आवश्यकतानुसार खर्च करता है, वह धीर पुरुष तीर्थंकर गोत्र कर्म का पुण्य उपार्जन करता है। और प्रतिदिन उस विषय में बढ़ते अध्यवसाय से अधिकाधिक प्रसन्नता वाला वह पुरुष निश्चय ही नरक और तिर्यंच इन दो गति को रोक देता है। उसका वहाँ जन्म कभी नहीं होता है। और उसको कभी भी अपयश नाम कर्म और नीच गोत्र का बंध नहीं होता है, परन्तु वह सविशेष निर्मल सम्यक्त्व रत्न का धारक बनता है।
स्त्री अथवा पुरुष जो पूर्व में साधारण में खर्च न किया हो तो भी बाद में भी अपने धन को साधारण में देता है वह अवश्यमेव उत्तरोत्तर परम कल्याण की परंपरा को प्राप्त करता है। इस जन्म में भी अपने यश समूह से तीनों भवन को भर देता है। पुण्यानुबंधी संपत्ति का स्वामी, पवित्र भोग सामग्री वाला और उत्तम परिवार वाला बनता है। और परभव में उत्तम देव, फिर मनुष्य भव में उत्तम कुलिन पुत्र रूप में होकर चारित्र रूपी संपत्ति का अधिकारी बनकर वह अंत में सिद्ध-पद प्राप्त करता है। अब अधिक कहने से क्या ? यदि उस भव में उसका मोक्ष न हो तो तीसरे भव से सातवें भव तक में अवश्य होता है, परंतु आठवें भव से अधिक नहीं होता है। और जो किसी से मोहित हुआ साधारण द्रव्य में मूढ़ मनवाला व्यामोह से अपने पक्षपात के आधीन बना केवल जिनमंदिर अथवा जिनबिम्ब, मुनि या श्रावक आदि किसी एक ही विषय में साधारण द्रव्य का व्यय करता है, परंतु पूर्वानुसार जहाँ आवश्यकता हो वहाँ विधिपूर्वक जिनमंदिरादि सर्व क्षेत्रों में सम्यग् व्यय नहीं करता है। वह प्रवचन (आगम) का वंचक या द्रोही कुमति को प्राप्त करता है। क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति से वह शासन का विच्छेदन करना चाहता है अथवा करता । इस तरह परिणाम द्वार में काल विगमन नामक तीसरा प्रतिद्वार भी प्रासंगिक अन्य विषयों सहित कहा। अब प्रथम परिकर्म द्वार के नौवाँ परिणाम द्वार का पुत्र प्रतिबोध द्वार कहते हैं ।। २९३० ।।
पुत्र प्रतिबोध नामक चौथा द्वार :
पूर्व में विस्तारपूर्वक कहा है। उन नित्य कृत्यों में निश्चय अपने एकाग्र चित्तवाला गृहस्थ कुछ काल व्याधिरहित जीवन व्यतीत होने के बाद अधिकार में पुत्र की सफलता को देखकर सविशेष उत्साहवाला, आराधना का अभिलाषी, प्रकट हुआ वैराग्यवाला सुश्रावक अपने अतिगाढ़ रागवाले विनीत पुत्र को बुलाकर संसार प्रति वैराग्य उत्पन्न हो, ऐसी भाषा में इस तरह समझाये -
हे पुत्र ! इस संसार की स्वाभाविक भयंकरता का जो कारण है कि - इस संसार में जीवों को सर्वप्रथम मनुष्य जीवन प्राप्त करना दुर्लभ है, उसका जन्म यह मृत्यु का दूत है तो संपत्ति अत्यन्त कष्ट से रक्षण हो सके, ऐसी प्रकृति से ही संध्या के बादलों के रंग समान चंचल है। रोग रूपी भयंकर सर्प क्षण भर भी निर्बल बना देता है और सुख का अनुभव भी वट वृक्ष के बीज समान अल्प होते हुए भी महान् दुःखों वाला है। स्थान-स्थान पर पीछे लगी हुई आपदा भी मेरु पर्वत सदृश महान् अति दारुण दुःख देती है। श्रेष्ठ और इष्ट सर्व संयोग भी निश्चित भविष्य में नाश होने वाले हैं और उत्पन्न हुए मनोरथ का शत्रु मरण भी आ रहा है। यह भी समझ में नहीं आता कि - यहाँ से मरकर परलोक में कहाँ जाना है ? और ऐसी सद्धर्म की सामग्री भी पुनः प्राप्त करनी अति दुर्लभ है। इसलिए हे पुत्र ! जब तक भी मेरे इस शरीर रूपी पिंजरे को जरा रूपी पिशाचनी ने ग्रसित नहीं किया,
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