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दर्शन- चारित्र की सामान्य आराधना
श्री संवेगरंगशाला ये पांच प्रकार का स्वाध्याय । वह दिन में या रात्री में करना। उसमें भी अकेले अथवा पर्षदा में रहकर करना । उसमें भी सुखपूर्वक सोये हुए या जागृत दशा से करना । उसमें भी खड़े रहकर, बैठकर या थक जाने से कभी स्थिर, चलित अथवा स्खलित - पतित बने हुए, स्वस्थ रहे अथवा दुस्थित, स्वतन्त्र, परतन्त्र तथा छींक, उबासी, या खांसी प्रसंग पर अथवा बहुत कहने से क्या ? जिस किसी अवस्था में रहने पर भी जिसके चित्त का उत्साह कम न होता हो उस उत्साह से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ज्ञान का ग्रहण, धारण तत्त्व से परतन्त्रता वाला है, ऐसा समझकर सम्यग् ज्ञान गुण से युक्त ज्ञानी पुरुष रत्नों की हमेशा भक्ति सेवा करनी चाहिए और उन्हें अतिमान देना चाहिए। इस तरह के आठ प्रकार का आचार पालन, पांच प्रकार के स्वाध्याय और विनय भक्ति पूर्वक सम्यग् ज्ञान की आराधना है।
दर्शन की सामान्य आराधना :
जो स्वरूप से गम्भीर अर्थ वाले होने से मुश्किल से समझ में आये ऐसें, जीव, अजीव आदि सर्व सद्भूत पदार्थ हैं उसे, अनुपकारी प्रति भी अनुग्रह करने में तत्पर, परम ऐश्वर्य वाले श्री जिनेश्वर भगवान का कथन होने से मेरी कथंचित् अल्प बुद्धि होने के कारण समझ में नहीं आये तो भी 'वह ऐसा ही है' ऐसे भाव से हमेशा उसमें शंका बिना जैसा है वैसा स्वीकारता है वह (१) निःशंकित आचार जानना, तथा यह अन्य दर्शन मिथ्या है, तो भी अमुक गुणों से वह दर्शन सम्यक् है ऐसा समझकर उसकी आकांक्षा नहीं करनी वह (२) निष्कांक्षित आचार है। शास्त्रविहित क्रियानुष्ठान का फल मिलेगा या नहीं मिलेगा? ऐसी शंका करना, तथा सूखे पसीने से मलीन वस्त्र या शरीर वाले मुनियों को देखकर दुर्गंच्छा नहीं करनी वह (३) निर्विचिकित्सा आचार है ।। ६०० ।। कुतीर्थियों की अल्प भी पूजा प्रभावना आदि अतिशय को देखकर मन में विस्मय नहीं करना, मोहमूढ़ न बनना वह (४) अमूढ़ दृष्टि आचार है। ये चार प्रकार निश्चयनय के है । धर्मात्माजनों के गुणों की प्रशंसा करके उत्साह बढ़ाना वह (५) उपबृंहणा आचार है। जो गुणों से चंचल हो उन्हें उन गुणों में स्थिर करना वह (६) स्थिरीकरण आचार है। तथाविध साधर्मिकों का यथाशक्ति वात्सल्य करना वह (७) वात्सल्य आचार है। और श्री अरिहंत भगवंत कथित प्रवचन (शासन) की विविध प्रकार से प्रभावना करनी उसके यश की महिमा बढ़ाना वह (८) प्रभावाच है। चार प्रकार व्यवहार नय के है। और इस निर्ग्रन्थ प्रवचन का यही अर्थ है, यही निश्चय परमार्थ है और इसके बिना सर्व अनर्थ है। इस तरह भाव से चिन्तन करना तथा निर्मल सम्यक्त्व गुणों से महान् पुरुषों का नित्यमेव जो भक्ति करनी उन्हें सन्मान देना वह सभी दर्शन आराधना जानना ।
चारित्र की सामान्य आराधना :
सर्व सावद्य (पापकारी) योग के त्यागपूर्वक सत् प्रवृत्ति करना वह चारित्र है और जो पांच महाव्रतों का पालन, दस प्रकार के क्षमादि यति धर्म, पड़िलेहण, प्रमार्जना आदि, तथा दस प्रकार की चक्रवाल रूप पृच्छाप्रतिपृच्छादि साधु समाचारी का पालन करना वह चारित्र की आराधना अथवा दसविध वैयावच्च में, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्ति में, बयालीस दोष रहित पिण्ड विशुद्धि में, तीन गुप्ति में, पांच समिति में अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के आश्रित यथाशक्ति अभिग्रह स्वीकार करने में, इन्द्रियों के दमन करने में, और क्रोधादि कषायों के निग्रह करने में, प्रतिपत्ति अर्थात् जिनाज्ञा पालन रूप आराधना तथा अनित्यादि बारह भावना, और पांच महाव्रत सम्बन्धी पच्चीस भावना का हमेशा चिंतन करना और विशेष अभिग्रह स्वीकार करने रूप बारह प्रकार की भिक्षु प्रतिमा 1. एस अट्टे, एस परमट्टे सेसे अणट्टे
भगवती सूत्र
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