________________
श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार - मन का छड्डा अनुशास्ति द्वार नहीं है, अतः निवृत्ति का स्वीकार कर। हे चित्त! यदि तं नित्यमेव चिन्ता की परम्परा में तत्पर होगा तो खेदजनक बात है कि तूं अत्यन्त दुस्तर समुद्र में गिरेगा ।
हे हृदय! तूं क्यों विचार नहीं करता? कि जो यह ऋतुओं रूपी छह पैर वाला, विस्तार युक्त कृष्ण शुक्ल दो पक्ष वाला, तीन लोक रूपी कमल के पराग का प्रतिदिन आयुष्य का पान करते हुए भी अतृप्त, गूढ़ गति वाला, जगत के सर्व जीवों में तुल्य प्रवृत्ति वाला, कालरूपी भ्रमर यहाँ भ्रमण कर रहा है। हे मन ! निर्धन को धन की इच्छा होती है, धनी को राजा बनने की, राजा को चक्रवर्ती बनने या इन्द्र आदि पदवी प्राप्ति करने की इच्छा होती है और उसे वह सब मिल जाये तो भी उसे तृप्ति नहीं होती है। शल्य के समान प्रवेश करते और स्वभाव ही प्रतिदिन पीड़ा करने वाले काम, क्रोध आदि तेरे अन्तरंग शत्रु हैं। जो हमेशा देह में रहते ही हैं। उसका उच्छेदन करने की तो हे चेतन मन ! तेरी इच्छा भी नहीं होती और तूं बाह्य शत्रुओं के सामने दौड़ता है, उनसे लड़ता है, अहो! महामोह का यह कैसा प्रभाव ? जब तूं बाह्य शत्रुओं में मित्रता और अंतरंग शत्रुओं के प्रति शत्रुता करेगा तब हे हृदय ! तूं शीघ्र स्वकार्य को भी सिद्ध कर देगा । हे हृदय ! प्रारम्भ में मधुर और परिणाम में कटु विषयों में आसक्ति न कर। क्योंकि भाग्य के वश से नाश होने वाले वे भोग उस भोगी को अति तीक्ष्ण दुःखों को देते हैं। मुख मधुर और अन्त विरस विषयों में यदि तूं प्रथम से ही राग नहीं करेगा तो हे हृदय ! फिर तूं कभी भी संताप को प्राप्त नहीं करेगा । विषयों के सेवन बिना भौतिक सुख नहीं है और वे विषय भी बहुत कष्ट से मिलते हैं। तो हे हृदय! तूं उनसे विमुख होकर विषय बिना का अन्य कोई सुख है उसका चिन्तन कर । हे चित्त ! जैसे तूं विषयों को प्रारम्भ में मधुर देखता है वैसे यदि विपाक को भी देखें और विचार करे तो तूं इतनी विडम्बनाएँ कभी भी प्राप्त नहीं करता। हे हृदय ! जहर समान विषयों की इच्छा कर तूं संताप को क्यों धारण करता है? और उस विषयेच्छा में ऐसा कोई चिंतन है कि जिससे परम निवृत्ति हो सके ? अरे ! विषयों की आशा रूपी छिद्र द्वारा तो ज्ञान से प्राप्त किया गुण भी नाश होता है। इसलिए, हे मूढ़ हृदय ! उन गुणों की स्थिरता या रक्षा के लिए तूं उस आशा रूपी छिद्र का त्याग कर। और हे हृदय ! विषयों की आशा रूपी वायु से उड़ती हुई रज से मलिन हुआ और निरंकुश भ्रमण करता तूं अपने साथ पैदा हुई इन्द्रियों के समूह से भी क्यों लज्जा नहीं करता है? हे मन कुम्भ ! काम के बाण से जर्जरित होने के बाद तेरे में कर्म मल को नाश करने वाला और संसार के संताप को क्षय करने वाला सर्वज्ञ परमात्मा का वचन रूप जल कैसे टिकेगा? यदि वह जिन वचन रूपी जल किसी प्रकार भी तेरे में स्थिर हो तो कषायों का दाह कैसे खत्म नहीं होता? और तेरी अविवेक रूपी मलिन ग्रंथी कैसे नष्ट नहीं
होती?
हे हृदय सागर! बड़े दुःखों के समूह रूपी मेरु पर्वत रूप मथनी से तेरा मंथन करने पर भी तेरे में विवेक रूपी रत्न प्रकट नहीं हुआ। हे चित्त ! अविवेक रूपी कीचड़ से कलुषित तेरी मति तब तक निर्मल नहीं होगी कि जब तक सुविवेक रूपी जल से अभिषेक करने की क्रिया नहीं करेगा।
हे हृदय! सुंदर भी शब्द, रूप, रस के प्रकार और श्रेष्ठ गन्ध तथा स्पर्श भी तब तक ही तुझे आकर्षित करेंगे जब तक तत्त्व बोध रूपी रत्नों वाले और सुख रूपी जल समूह से पूर्ण भरे हुए श्रुतज्ञान रूपी अगाध समुद्र में तूंने स्नान नहीं किया । शब्द नियमा कान को सुख देने वाले हैं, रूप चक्षुओं का हरण करनेवाला चोर है, रस जीभ को सुखदायक है, गन्ध नाक को आनन्द देनेवाली है और स्पर्श चमड़ी को सुखदायी है। उसका संग करने से क्षणिक सुख देकर फिर वियोग होते ही वे तुझे अति भयंकर अनंत गुणा दुःख देते हैं। इसलिए हे चित्त ! तुझे उन विषयों से क्या प्रयोजन है ? ।। १८४६ ।। अति मनोहर हवेली, शरद ऋतु का चन्द्र, प्रियजन का संग, पुष्प,
82
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org.