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समह से
श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार-वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा हो, हे मुनीश्वर! यहाँ अब मुझे जो करणीय हो वह करने की आज्ञा दो! उसके बाद मुनिपति ने 'यह योग्य है' ऐसा जानकर कायोत्सर्ग ध्यान पूर्ण किया और सम्यक्त्व रूप उत्तम मूल वाला, पाँच अणुव्रत रूपी महा स्कन्ध वाला, तीन गुणव्रत रूपी मुख्य शाखा वाला, चार शिक्षा व्रत रूपी बड़ी प्रतिशाखा वाला, विविध नियम रूपी पुष्पों से व्याप्त, सर्व दिशाओं को यशरूपी सुगन्ध से भर देने वाला, देव और मनुष्य की ऋद्धि रूपी फलों के समूह से मनोहर, पापरूपी ताप के विस्तार को नाश करने वाला श्रीजिनेश्वरों के द्वारा कहा हुआ सद्धर्म रूपी कल्पवक्ष का परिचय करवाया और अत्यन्त शद्ध श्रद्धा तथा वैराग्य से बढते तीव्र भावना वाले उसने श्रद्धा और समझपूर्वक अपने उचित धर्म को स्वीकार किया। इस तरह ताराचन्द्र को प्रतिबोध देकर पुनः मोक्ष में एक स्थिर लक्ष्यवाले वह श्रेष्ठ मुनि काउस्सग्ग ध्यान में दृढ़ स्थिर रहे। उसके बाद 'हम ध्यान में विघ्नभूत हैं' ऐसा समझकर वह विद्याधर युगल और ताराचन्द्र तीनों विनयपूर्वक साधु को वंदनकर बाहर निकल गये। फिर 'यह साधर्मिक बन्धु है' इस तरह स्नेहभाव प्रकट होने से उस विद्याधर ने ताराचन्द्र को जहर आदि दोषों को नाश करने वाली गुटिका देकर कहा-अहो महाभाग! तूं इस गुटिका को निगल जा और विषकार्मण आदि का तूं भोग बना है इसके प्रभाव से तूं निर्भय और निःशंकता से पृथ्वी पर भ्रमण कर। ताराचन्द्र ने उसे आदरपूर्वक स्वीकार किया, और विद्याधर युगल आकाश मार्ग में उड़ गया तथा प्रसन्न बनें ताराचन्द्र ने उस गुटिका को खा लिया, फिर पर्वत से वह नीचे उतरा और स्वस्थ शरीर वाला चलते क्रमशः पूर्व समुद्र के किनारे रत्नपुर नगर में पहुँचा ।।२३७८।। वहाँ उसके रूप से आकर्षित हृदयवाली मदनमंजूषा नामक वश्
मक वेश्या ने अति श्याम-संदर शोभते मस्तक वाले और कामदेव को भी जीतनेवाले अति देदीप्यमान रूप वाले उसे देखकर उसकी माता को कहा-'अम्मा! (अका!) यदि इस पुरुष को तं नहीं लायगी तो निश्चय ही मैं प्राण का त्याग करूँगी. इसमें विकल्प भी नहीं करूंगी।' यह सुनकर अम्मा राजपुत्र ताराचन्द्र को अपने घर ले आयी, उसके बाद सत्कारपूर्वक स्नान, विलेपन, भोजन आदि कर अपने घर में रहे, वैसे वह वहाँ चिरकाल तक उसके साथ रहने लगा। तब माता ने कहा-हे पापिनी! भोली मदनमंजूषा! साधु के समान इस निर्धन मुसाफिर का संग्रह तूं क्यों करती है? हे पुत्री! वेश्याओं का यह कुलाचार है कि-शक्ति से इन्द्र और रूप से स्वयं यदि कामदेव हो तो भी निर्धन की इच्छा नहीं करें। पुत्री ने कहा-अम्मा! तेरे चरणों के प्रभाव से सात पीढ़ी पहुँचे इतना धन है, और अन्य धन से क्या करूँगी? फिर अम्मा ने निष्ठर शब्दों से उसका बहत बार तिरस्कार किया, लेकिन उसने जब ताराचन्द्र को नहीं छोड़ा, तब अम्मा ने विचार किया कि-यह जब तक जीता है, तब तक यह पुत्री मेरी बात को स्वीकार नहीं करेगी, इससे गुप्त रूप में मैं इसे उग्र जहर देकर मार दूंगी। फिर किसी सुंदर अवसर पर उसने उग्र जहर से मिश्रित चूर्ण वाला पान खाने के लिए स्नेहपूर्वक उसे दिया। ताराचन्द्र ने उसे स्वीकार किया और विकल्प बिना उसका भक्षण भी किया, फिर भी पूर्व में खाई हुई गुटिका के प्रभाव से विष विकार नहीं हुआ। इससे खेदपूर्वक हा! विष प्रयोग करने पर भी यह पापी यद्यपि क्यों नहीं मरा? ऐसा विचारकर अम्मा ने पुनः उसे अधिक प्राणघातक कार्मण किया। परन्तु गुटिका के प्रभाव से उस कार्मण से भी वह नहीं मरा, परंतु आरोग्य, रूप और शोभा अधिकतर बढ़ने लगी। इससे वह वज्रघात हुआ हो इस तरह, या लूटी गयी हो इस तरह स्वजनों से दूर फेंक दी हो, इस तरह हथेली में मुँह ढाँककर शोक करने लगी। तब ताराचन्द्र ने उससे कहा-हे माता! आपको कभी ऐसा उदास नहीं देखा, पहली बार ही वर्षा ऋतु के काले बादल के समान आपका आज श्याम मुख क्यों है? उसने कहापुत्र! निश्चय जो शक्य न हो वह हितकर और युक्ति वाला भी कहने से क्या लाभ है? ताराचन्द्र ने कहा-माता! आप कहो, मैं आपका कहना स्वीकार करूँगा। उसने कहा-पुत्र! यदि ऐसा ही है तो सुन-हे पुत्र! तूं सुंदर विशेष
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