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परिकर्म द्वार - वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा
श्री संवेगरंगशाला
लक्षण वाला, रूप वाला, सद्गुणी और मनोहर शरीर वाला है, परंतु विषयों की गृद्धि से नजदीक भविष्य में मृत्यु होगी, क्योंकि - तूं व्यायाम नहीं करता है, शिष्ट पुरुषों की सभा में तूं बैठता नहीं हैं, और कभी देव मंदिर या धर्मस्थान से तूं परिचय नहीं करता है । हे पुत्र ! हमेशा विषय इच्छा से वासुदेव भी मृत्यु के सन्मुख जाता है, तो कमल फूल के पत्तों समान कोमल शरीरवाला तूं कौन-सी गिनती में है? मैं इसी कारण से यह कह रही हूँ, दुर्लभ प्राप्त भी अन्य वस्तु इस संसार में भाग्ययोग से मिल जाती है, परंतु तेरे समान पुरुष रत्न पुनः कहाँ से मिलेगा ? इसलिए हे पुत्र ! तुझे प्रतिदिन दुर्बल होते देखकर ही इस चिन्ता से ही मैं शोक संतप्त रहती हूँ।
स्वच्छ स्वभाव होने से ताराचन्द्र ने उसका कहना स्वीकार किया। केवल एकान्त में पुत्री से उसने कहा, तब पुत्री ने कहा 'यह सारा कपट है' तब उसने ऐसा जानकर प्रतिदिन पूर्व के समान ही रहने लगा। इससे अम्मा ने विचार किया कि—यह पापिष्ठ जहर आदि से भी मरे ऐसा नहीं है ।। २४०० || और यदि इसे शस्त्र से मार दूँ तो निश्चय पुत्री भी मर जायगी। अरे रे ! यह कैसा महासंकट आ गया है? इसको रोकना भी मुश्किल है। इस तरह शोक से व्याकुल चित्तवाली वह घर में नहीं रह सकने से दासियों को साथ लेकर एक दिन नगर उद्यान को देखने लगी, और इच्छानुसार इधर-उधर घूमती समुद्र किनारे पहुँची, वहाँ उसने परदेश से आया हुआ एक जहाज देखा। उसमें आये हुए मनुष्यों को पूछा- आप यहाँ कहाँ से आये हैं और कहाँ जाना है? उन्होंने कहाहम बहुत दूर से आये हैं और आज रात को जायेंगे। यह सुनकर उसने विचार किया कि - अरे अन्य योजना से क्या लाभ है, अतिगाढ़ निद्रा में सोये हुए ताराचन्द्र को रात्री में इस जहाज में चढ़ा दूँ, कि जिससे वह दूर अन्य देश में पहुँच जाय जिससे फिर वापिस नहीं आये, ऐसा करने से मेरी पुत्री प्राणों का भी त्याग नहीं करेगी। फिर जहाज के मालिक को उसने एकान्त में कहा - पुत्र सहित मैं आपके साथ आऊँगी। उसने भी कहा - हे माता ! यदि तुम्हें आने की इच्छा हो तो मध्य रात्री में आज जहाज प्रस्थान करेगा। उसने स्वीकार किया और घर गयी, फिर जब मध्य रात्री हुई और पुत्री सो रही थी, तब अपने पलंग पर गाढ़ निद्रा में सोये हुए ताराचंद्र को धीरे से दासियों द्वारा पलंग सहित उठवाकर पलंग के साथ उसे जहाज के एक विभाग में रखा, और उसने जहाज के नायक को कहा - यह मेरा पुत्र है और यह मैं भी आयी हूँ, अब तूं ही एक हमारा सार्थवाह रक्षक है। जहाज के मालिक ने 'हाँ' कहा। फिर अनेक जात के कपटों से भरी हुई, वह वहाँ के मनुष्यों की नजर बचाकर जैसे आयी थी वैसे शीघ्र वापिस चली गयी।
फिर बाजे बजते महान मंगल शब्दों युक्त जहाज को चलाया, और बाजों की आवाज से घबराकर चारों दिशा में भ्रान्तियुक्त, आँखोंवाला ताराचन्द्र जागा - यह क्या है? कौन-सा देश है? मैं कहाँ पर हूँ? अथवा यहाँ मेरा सहायक कौन है? ऐसा विचार करते जब देखता है तब उसने महासमुद्र को देखा, और धनुष्य से छूटा हुआ अत्यन्त वेग वाले बाण के समान अतीव वेग से जाते और चढ़े हुए उज्ज्वल पाल वाले जहाज को भी देखा, इससे विस्मित मनवाला वह विचार करने लगा कि - परछाई की क्रीड़ा समान अथवा इन्द्र जाल के समान नहीं समझ में आये ऐसा यह कौन-सा संकट आया है? अथवा तो सोच समझ भी नहीं सकता हूँ, कहा भी नहीं जा सकता और पुरुष प्रयत्न जहाँ निष्फल होता है वहाँ ऐसे अघटित को भी घटित करने की रुचिवाले मेरे दुर्भाग्य का यह भी कोई दुष्फल है। तो अब जो कुछ होता है वह होने दो। इस विषय में निष्फल चिंतन करने से क्या लाभ है? ऐसा सोचकर फिर उस पलंग पर निश्चित रूप से सो गया। फिर जब सूर्य उदय हुआ तब उठा, 'यह अम्मा का प्रपंच है' ऐसा जानकर अति प्रसन्न मुख कमल वाला वह जब शय्या से उठा, तब बहुत काल गाढ स्नेह वाले जहाज के मालिक अपने बालमित्र कुरुचन्द्र को देखकर तुरंत पहचान लिया । कुरुचंद्र ने उसे देखकर संभ्रमपूर्वक
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