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श्री संवेगरंगशाला
परिवर्म द्वार-मन का छटा अनुशास्ति द्वार सुगन्ध को फैलाते और विशिष्ट रूप शोभा से युक्त भी आरम्भ में अल्पमात्र सुखदायक बनकर अन्त में तुझे बन्धन रूप दुःखकर होगी, क्योंकि स्त्रियों का शरीर चर्बी, हाड, पिंजर, नसें तथा मल, मूत्रादि से द्रव्यों का समूह है, और हे चित्त! भौतिक पंडित भी स्त्रियों के चरण को लाल कमल के साथ, पैर को केले के स्तम्भ समान, स्तन का वर्णन कठिनता और आकार को श्रेष्ठ जाति का सुवर्ण, शीला और उत्तम कलश के साथ, हथेली को कंकेली वृक्ष के पत्तों के साथ, भुजाएँ अथवा शरीर गात्र को लता के साथ, मुख को चन्द्रमा के साथ, होंठ को परवाल के साथ, दाँत को मोगरे की कलियों के साथ, आँखों को कमल पत्तों के साथ, भाल को अष्टमी के चन्द्र के साथ, और मस्तक के बाल मयूर के पिच्छ समूह के साथ तुलना, उपमा देते हैं। वह तेरे अंतर में उछलती राग की महिमा है। इसलिए हे मन! देखने में सुंदर भी अति दुर्गन्धमय मांस, रूधिर, मल और हड्डी का पिंजर, इत्यादि से भरी हुई मल की भण्डार रूपी स्त्रियों में तूं राग न कर। शब्दादि विषयों के समुदाय रूपी सरोवर में विलास करती हुई हे मन रूपी मछली! तुझे पकड़ने के लिए कामरूपी मछुए ने स्त्रियों रूपी मांस वाली जाल डाली है, स्त्री के संग रूपी मांस में प्रेमी बने तुझे इस जाल से शीघ्र खींचकर हे मूढ़! काम के तीव्र अनुराग रूपी अग्नि में सर्व प्रकार से सेकेंगे। हे मन! यदि तुझमें अमृत तुल्य जैन वचन सम्यग् रूप से आचरण में आ जायें तो स्त्रियों का हास्य और ललित विलासी हावभाव भी लेशमात्र विकार नहीं करते। हे मन! जिसके वियोग रूपी अग्नि से जलते तूं मुहूर्त मात्र को भी सो वर्ष से अधिक मानता है, उन स्त्रियों के साथ तेरा कोई ऐसा वियोग होगा कि जिससे सैंकड़ों सागरोपम तक भी पुनः एक समय मात्र संयोग की आशा भी नहीं होगी। हे चित्त! अपने शरीर में भी अपना जीव नित्य निवास स्थान प्राप्त नहीं कर सकता तो अन्य स्थान पर कोई कैसे प्राप्त कर सकता है? हे मन! इस जगत में जन्म पानी के बुलबुले के समान उत्पन्न होता है और नाश होता है वैसे निश्चय ही संयोग
और वियोग होता है और नाश होता है। हे मन! स्वभाव से ही नाशवंत फिर भी प्राण इस शरीर में क्षण वार स्थिर रहते हैं वह आश्चर्य है, क्योंकि बिजली का प्रकाश क्षण से अधिक नहीं रहता? हे हत हृदय! इष्ट के साथ संयोग क्षण मात्र और फिर उसका वियोग हजारों भव तक रहता है, तो भी तूं प्रिय का संगम चाहता है। हे हृदय! कुपथ्य के जैसा अल्पमात्र मनोहर सदृश प्रिय संयोग को भोगने का परिणाम भयंकर ही आता है। इसलिए संसार में संतोषी बन, तप में रागी और सर्वत्र निरभिलाषी, तुझे दुर्गति के मार्ग से बचाने वाले धर्म मार्ग में स्थिर हो। हे मानव! चक्री और इन्द्रपने में भी जो सुख नहीं है, वह इस धर्म की प्राप्ति से प्राप्त होता है तो अब तेरे में क्या अपूर्णता रही? कि जिससे तूं संतोष के लिए खेद करता है? अर्थात् धर्म की प्राप्ति से सर्व सुख की प्राप्ति होती है। तथा हे मन! संतोष करने से तूंने जिस धन को प्राप्त किया उसके रक्षण करने की और व्यय करने की वेदना से मुक्त हो जायेगा और इस जन्म में भी तुझे परम शान्ति की प्राप्ति होगी ।।१८८९।। .
हे मन! संतोष रूपी अमृत रस से भिगे हुए तुझे हमेशा ही सुख होता है, वह सुख इधर-उधर की चिन्ता में, आसक्ति में, असंतोषीपन में तुझे कहाँ मिलता है? हे मन! तूं यदि संतोषी बनेगा तो वही तेरी उदारता है, वही तेरा बड़प्पन है, वही सौभाग्य है, वही कीर्ति और वही तेरा सुख है। हे चित्त! तूं संतोषी होते ही तेरे पास सर्व संपत्तियाँ हैं, अन्यथा चक्री जीवन में और देवत्व में सदा दरिद्रता ही है। हे मन! अर्थ की इच्छा वाला दीनता का ही अभिनय करता है। उसको प्राप्त करने पर अभिमान और असंतोष को प्राप्त करता है तथा मिलने के बाद धन नष्ट हो जाने से शोक करता है। इसलिए धन की आशा छोड़कर तूं संतोष रूपी धन से सुख से रह। निश्चय ही अर्थ की इच्छा प्रकट करने के साथ ही अन्दर से तत्त्व (स्वत्व) निकल जाता है, अन्यथा हे मन! अर्थीजन वैसी ही अवस्था वाला होने पर भी उसकी लघुता कैसे होती है? और मृतक में जो भारीपन बढ़ता
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