________________
परिकर्म द्वार - साधु को वसति दान देने से लाभ
श्री संवेगरंगशाला छोड़रक - हे भगवंत ! अब मैं सामायिक लेता हूँ सभी पाप व्यापारों को जब तक जीवित रहूँ तब तक त्रिविधत्रिविध से त्याग करता हूँ- इस तरह जो महा प्रतिज्ञा की है और सर्व प्रकार से छह जीवनिकाय रक्षण में तत्पर है वह मुनि अपनी की हुई ऐसी प्रतिज्ञा को छोड़कर स्वयं घर आदि की किस तरह बात कर सकता है?
इस कारण से अन्य के लिए प्रारम्भ ( तैयार किया) और अन्य के लिए ही पूर्ण किया हुआ, मन, वचन, काया से स्वयं करना नहीं, दूसरों के द्वारा करवाना नहीं और इसीसे अनुमोदन नहीं करना, इस तरह मूल-उत्तर गुण से युक्त प्रमाण युक्त स्त्री, पशु, नपुंसक और दुराचारियों से रहित, ऐसे पड़ोसियों से भी रहित, स्वाध्याय, कालग्रहण, स्थंडिल और प्रश्रवण के लिए (निरवद्य) भूमि से संयुक्त सुरक्षित, साधुओं के रहने योग्य पापरहित स्थान गृहस्थ साधुओं को दे। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कारण ऐसे प्रकार की वसति न मिले तो भी सार असार ( लाभ हानि ) का विवेक विचारकर अल्प दोष वाली परन्तु अति महान् गुणकारी वसति सदा मुनियों को देनी चाहिए, क्योंकि उसके बिना वे संयम पालन करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। इस कारण से वसति देने से देनेवाले गृहस्थ दुस्तर संसार समुद्र को भी तर जाते हैं, इसलिए ही शास्त्रकारों ने उसे 'शय्यातर' अर्थात् शय्या से पार उतारने वाला कहा है, और उसने दी हुई वसति में रहे हुए साधु अन्य के पास से भी वस्त्र पात्रादि जो प्राप्त करते हैं वह भी परमार्थ से उसने दिया है ऐसा गिना जाता है। यद्यपि पूर्व में कहे अनुसार भोजनादि उनको स्वयं वहाँ कुछ न मिले, तो भी वसति का दाता तो उस दान में दान का मूल कारण बनता है, क्योंकि वसति मिलने के बाद अशनादि अन्य वस्तु के दान का मूल दाता तो शय्यातर है फिर देने वाले दूसरे तो उत्तर कारण है। प्रायः मूल अंग शरीर हो तभी उसके साथ सम्बन्ध रखने वाले हाथ, पैर आदि उत्तर अंगों का वह अधिकारी बनता है । जैसे जड़ का योग बलवान हो तो वृक्ष बड़ा विस्तार वाला होता है, वैसे वसति की प्राप्तिरूपी मूल बलवान हो तो साधु वर्ग संयम की विशेष वृद्धि को प्राप्त करते हैं। अपने घर में वसति (स्थान) देने वाला गृहस्थ मुनि पुंगवों को वायु, धूल, बरसात, ठंडी, ताप आदि के उपसर्गों से, चोरों से दुष्ट श्वापदों के समूह से तथा मच्छरों से रक्षण करते सदाकाल उन मुनियों के मन, वचन, काया को प्रसन्न करते हैं। और इन योगों की प्रसन्नता से ही मुनियों में श्रुति, मति और संज्ञा तथा शान्ति का बल प्रकट होता है तथा शरीर, बल, उनका शुभध्यान की वृद्धि के लिए होता है।
कहा है कि प्रायः सुमनोज्ञ, आश्रय, शयन, आसन और भोजन से महान् लाभ मिलता है, सुमनोज्ञ, ध्यान का ध्याता साधु संसार का विरागी बनता है। जिसके आश्रय में मुहूर्त्त मात्र भी मुनि विश्राम करते हैं इतने
ही वह निश्चय कृतकृत्य बनता है, उसे अन्य पुण्य से क्या प्रयोजन है? उनका जन्म धन्य है, कुल धन्य है, और वह स्वयं भी धन्य है कि जिसके घर में पाप मैल को धोने वाले सुसाधु रहते हैं। और यहाँ प्रश्न उठता है किइस भव में उसका जन्म यदि खराब कुल में हुआ हो तो जगत में एक श्रेष्ठ पूजनीय मुनिराज उसके घर में कैसे रहते हैं? इसका उत्तर देते हैं कि - जिसका मद, मोह नाश हुआ हो ऐसे मुनि पुण्यवंत के घर में ही रहते हैं क्योंकि–'पापियों के घर में कभी रत्न वृष्टि नहीं होती है।" जीवों को कलियुग के क्लेश से रहित ऐसा अवसर किसी समय ही मिलता है कि जिस काल में गुणरत्नों के महानिधि श्रेष्ठ मुनि उसके घर में रहें। जैसे पुण्य बिना कल्प वृक्ष की छाया नहीं मिलती है वैसे पाप को चकनाचूर करने वाली महानुभावों की सेवा भी दुर्लभ है। संयम के भार को अखंड धारण करने वाले धीर मुनि वृषभ को धर्मबुद्धि से वसति देने वाले ने पहले कहा है वह सर्व अर्पण किया है ऐसा समझना । उसने चारित्र का पक्षपात, गुणों का राग, उत्तम धर्म की साधना, निर्दोष के पक्षपात पने और कीर्ति की सम्यग् वृद्धि की है। तथा सन्मार्ग की वृद्धि, कुसंग का त्याग, सुसंग में प्रेम, अपने घर के 1. न कयाइ रयण वुट्टी निवडइ पावाण गेहेसु || २२६१ || उत्तरार्ध |
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
99 www.jainelibrary.org