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परिकर्म द्वार-वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा
श्री संवेगरंगशाला वसति के दाता की भूमिका के अनुरूप उसे लाभ होता है।
संसार सुखों की आकांक्षा से मुक्त केवल एक मोक्ष सुख के लक्ष्य वाला महानुभाव सुविहित साधुओं को जो इस भव में घास की बनी जीर्ण झोंपड़ी के भी एक कोने में स्थान देता है, वह मैल से भरा हुआ शरीर रूपी पिंजरे को छोड़कर दूसरे जन्म में मणिमय देदीप्यमान बड़ी दिवाल की कान्ति के विस्तार से चित्त में रति जगानेवाला अति विशाल सैंकड़ों पुतली और झरोखे और किल्ले से शोभित, विचित्र मणि से जड़ित हजारों बड़े स्तंभों से ऊँचा, रत्नों से जड़ित फर्शवाला, रत्न और मणि के सुंदर किरणों के समूह से हमेशा पूर्ण प्रकाश वाला, आकाश मंडल तक पहुँचा हुआ अति ऊँचा, तोरण से मन को आनंद देनेवाला, उड़ते हुए उज्ज्वल ध्वज पर की श्रेणी से शोभता अति रम्य, आज्ञा के साथ ही उसका अमल करने के लिए अनुरागी सेवक देवों से भरा हुआ। नेत्रों को उत्सव रूप क्रीड़ा करती अप्सराओं से भरा हुआ। श्रेष्ठरत्न, सुवर्ण और मणिमय, आसन, शयन, छत्र, चामर और कलश वाला तथा पंच वर्ण के मणि, रत्न, पुष्प और दिव्य वस्त्रों से समृद्धशाली, इच्छा के साथ ही उसी समय सभी अनुकूल पदार्थ मिल जाय ऐसे सर्वोत्तम विमान में महर्द्धिक देव होता है ।।२३०१।। पुनः वहाँ से च्यवकर श्रेष्ठ सौभाग्य और रूप वाला, मनुष्यों के मन और नेत्रों को आनन्द देने वाला, निरुपक्रमी, लम्बी निरोगी आयुष्य वाला, लावण्य से पवित्र शरीर वाला, बंदीजन के द्वारा गुण समूह के गीत गान करवाने वाला, मणि, सुवर्ण, रत्न के शयन, आसन से युक्त प्रासाद के प्रागंण में क्रीड़ा करते मनोवांच्छित भावों की प्राप्ति वाला, महा वैभवशाली, सर्व अतिशयों का भंडार, सर्व दिशा में विस्तृत यशवाला, पुण्यानुबंधी पुण्यवाला और सम्पूर्ण छह खंड पृथ्वी का भोगी इस मनुष्य लोक में चक्रवर्ती होता है, अथवा अखंड भूमंडल का राजा होता है, अथवा उसका मन्त्री या नगरसेठ या सार्थवाह अथवा महान् धनवान का पुत्र होता है। धन्यात्मा वह वहाँ श्रेष्ठ चारित्र गुण प्राप्तकर उसी जन्म में अथवा तीन या सात भव में नियम से कर्म क्षयकर शीघ्र मोक्ष प्राप्त करत साधुओं को भावपूर्वक वसति देने से निष्कलंक और वांछित पूर्ण करने में तत्पर राजा बनने का पुण्य बंध हो उसमें क्या आश्चर्य है? आश्चर्य तो पुनः वह है कि अधम गति प्राप्त करने वाला, प्रमाद रूप मदिरा से मूढ़ और मुग्ध कुरुचन्द्र इच्छा बिना भी साधुओं को वसति देने से नित्य साधुओं के दर्शन होते-होते उनके प्रति आंशिक राग होने से जाति स्मरण ज्ञान को प्राप्तकर स्वयंमेव प्रतिबोध प्राप्त किया था ।।२३१०।। उसकी कथा इस प्रकारः
वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा लक्ष्मी के कुल भवन समान, आश्चर्यों की जन्म भूमि सदृश और विद्याओं की निधान स्वरूप, श्रावस्ती नाम की नगरी थी। वहाँ नमते हुए राजाओं के मस्तक मुकुटों के रत्नों की कान्ति से प्रकाशमान पादयुगल वाला, जगत प्रसिद्ध आदिवराह नामक राजा था। उसे अप्रतिम गुण वाला, रूप से प्रत्यक्ष कामदेव समान और युद्ध की कुशलता से वासुदेव के सदृश युद्ध भूमि में सर्व को जीतने की इच्छा वाला, राजा के लक्षणों से युक्त ताराचन्द्र
का पत्र था। उस ताराचन्द्र को अपने प्राण समान करुचन्द्र नामक मित्र था। यवराज पद देने की इच्छा वाले राजा ने उस ताराचन्द्र को अन्य कुमारों से सर्वश्रेष्ठ जाना। उसके पश्चात् राजा के पास बैठी हुई सौतेली माता ने राजा के स्नेहपात्र ताराचन्द्र के सामने देखते हुए विषादयुक्त दृष्टि से देखा, 'अपने पुत्र को राज्य प्राप्ति में ताराचन्द्र विघ्न रूप होगा।' ऐसा मानकर उसने उसको मारने के लिए एकान्त में गुप्त रूप से भोजन में कार्मण मिलाकर वह भोजन उसे दिया। ताराचन्द्र ने किसी प्रकार के विकल्प बिना वह भोजन खा लीया। फिर उस भोजन में से विकार उत्पन्न हुआ इससे ताराचन्द्र का रूप, बल और शरीर को नाश करने वाली महाव्याधि उत्पन्न हुई। उससे पीड़ित, निर्बल और दुर्गंधनीय बने शरीर को देखकर अत्यन्त शोकाग्रस्त बना ताराचन्द्र विचार करने लगा कि-निर्धन,
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