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श्री संवेगरंगशाला
परिवर्म द्वार-साधु को वसति दान देने से लाभ इच्छामात्र से सर्व कार्य जिसमें सिद्ध हुए हैं ऐसे राज्य का भोग करते हुए भी वीर संवेग से युक्त बुद्धिवाले संसार स्वरूप का विचार करने वाले और धर्म का पक्ष रखने वाले राजा को ऐसी धर्म की चिंता होती है कि :
सदा संपूर्ण सावद्य-पापकारी जीवन वाले संसार की आवारागर्दी में हेतुभूत वृत्तियों में तत्पर मन वाले मुझे धिक्कार हो। निश्चय मेरा वह कोई भी भविष्य का वर्ष अथवा कोई ऋतु या महीना या पक्ष रात्री या दिन अथवा दिन में भी मुहूर्त, मुहूर्त में भी क्षण अथवा कोई वार, वार में भी वह नक्षत्र कब आयगा? कि जब परमार्थ को जानकर मैं पुत्र पर राज्य का भार सौंपकर धीर पुरुषों के द्वारा कही हुई सर्वज्ञ प्रणीत आज्ञा की जो पराधीनता है उसे धारण कर. आज्ञाधीन बनकर संवेगी महान गीतार्थ और उत्तम क्रिया वाले गरु के चरण कमल में दीक्षित होकर, सर्व संबंध से निरपेक्ष बनकर, छट्ठ अष्टम, दशम दुवालस अथवा दो, तीन, चार, पाँच उपवास आदि तप के विविध प्रकार से द्रव्य भाव संलेखना करते हुए दुर्बल-कृश शरीर वाला बनकर, शरीर की सार संभाल करने का त्यागकर और उस शरीर से परिषह-उपसर्ग सहन करने के द्वारा उस शरीर पर की ममता का त्यागकर पर्वत की शिला पर पद्मासन लगाकर बैठकर उस समय, मुझे वृक्ष-ठूठ समझकर चारों तरफ आते हुए हिरण अपनी काया को मेरी काया से घिसे. ऐसा मैं निश्चल कब बनंगा? और सर्वथा आहार का त्यागी यथास्थित आराधना करते हुए पंच नमस्कार मंत्र में एकाग्र बनकर मैं प्राण का त्याग कब करूँगा? अभी तो केवल जब तक अकृत पुण्य में दीक्षा स्वीकार न करूँ तब तक मेरे ही घर में मुनियों को वसति देकर सेवा करूँ। इत्यादि इस प्रकार की धर्म चिंता करना योग्य है, उसमें भी वसतिदान की भावना करनी विशेषतया योग्य है। क्योंकि सभी दानों की अपेक्षा वसति दान श्रेष्ठ है ।।२२२९।। साधु को वसति दान देने से लाभ :
वसति के अभाव में अनवस्थित मुनियों को गृहस्थ आत्म अनुग्रह के लिए भक्ति वाले होते हुए भी भोजन आदि नहीं दे सकते हैं, तथा अचित्त, अकृत (नहीं किया हुआ) अकारित (नही कराया हुआ) और अननुमत (आज्ञा बिना तैयार किया हुआ) न तो औषध, न तो आहार या न कंबल, और नहीं वस्त्र पात्र, न ही पादप्रोच्छन (पैर साफ करने का वस्त्र), या न दंडा और न बुद्धिमान पुत्र आदि को देकर शिष्य बनवा सकता है, शास्त्र पुस्तक को अथवा साधुओं के योग्य कोई उपकरण को भी नहीं दे सकता। संसारवास से विरागी चित्तवाले भी कोई गृहस्थ को वसति दान दिये बिना सद्गुरु की सेवा अथवा उनके उपदेश रूपी वचन श्रवण का लाभ भी नहीं मिल सकता। और अनियत विहार के आचार को पालते साधुओं को उस क्षेत्र में आने के बाद वसति की प्राप्ति न हो तो वहाँ वे साधु कैसे रह सकते हैं? और साधु रहे नहीं तो उभय लोक में होने वाला हितकारी वह क्षेत्र गुणवान् साधु और गृहस्थों के लिए हितकारी किस तरह हो सकता है? इसमें साधुओं को इस लोक के गुण रूप अशन पानादि की प्राप्ति आदि और परलोक में हितकर संयम का परिपालन आदि जानना। गृहस्थ को भी मुनि के संग से कसंग का त्याग आदि इस लोक में लाभदायी होता है और सद्धर्म का श्रवण आदि से पर भव सम्बधी अनेक गुण प्राप्त होते हैं। और साधु स्वयं घर को मन, वचन, काया से तैयार नहीं करते हैं। दूसरों के द्वारा नहीं करवाते हैं और दूसरों के किये हुए की अनुमोदना भी नहीं करते हैं। क्योंकि-सामान्य झोपड़ी जैसा भी घर सूक्ष्म-बादर छह जीवनिकाय की हिंसा बिना नहीं बनता है। इसलिए ही कहा है कि-जीवों की हिंसा किये बिना घर तैयार नहीं होता, उसकी रक्षा के लिए बाड़ का संस्थापन आदि किये बिना उसकी रक्षा कैसे हो सकती है? और जीवों की हिंसा करके भी ऐसा कार्य जो करता है तो वह संयम से भ्रष्ट होकर असंयमी गृहस्थ के मार्ग में जाता है ।।२२३९-४०।। जिसने बाजों के नादपूर्वक महोत्सव से अनेक मनुष्य, सद्गुरु और संघ के समक्ष घर को ___98 -
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