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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार - मन का छट्टा अनुशास्ति द्वार से निर्मल भी दर्पण शीघ्र मलिन होता है, जैसे अति विशाल धुएँ से अग्नि की शिखा काली श्याम हो जाती है, जैसे उड़ती रेत के समूह से चन्द्र भी निस्तेज हो जाता है वैसे तूं उज्ज्वल है तो भी कुवासना से मलिन होता है। तूंने आज तक आत्मा को अपने नियम में लेकर राग-द्वेषादि का निग्रह नहीं किया, शुभ ध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूप विशाल ईंधन को नहीं जलाया, विषयों में से खींचकर इन्द्रियों के समूह को धर्म मार्ग में नहीं जोड़ा, तो चित्त ! क्या तुझे मुक्ति के सुख की भी इच्छा नहीं है?
हे मन! हाथियों को सजाना नहीं है, घोड़ों की कतारों को भगाना नहीं है, आत्मा को प्रयास नहीं करना, तलवार का भी उपयोग नहीं करना, परंतु शुभध्यान से ही राग आदि अन्तरंग शत्रुओं को खत्म करना है, फिर भी तूं उनका पराभव क्यों सहन करता है? गुरु महाराज के बताये उपाय से प्रथम आलम्बन के आधार पर मन, वचन और काया के योग सर्व विघ्नों से रहित हो, वैसा प्रयत्नपूर्वक अभ्यास कर, बाह्य विषयों की चिन्ता के व्यापार छोड़कर यदि तूं निरालम्बन होकर परम तत्त्व में लीन बनेगा तो हे चित्त! तूं संसार चक्र में परिभ्रमण नहीं करेगा । । १९२८ ।।
न! यदि तूं प्रकृति से ही चल - स्वभाव वाले, विषयाभिलाषा में वेग वाले, दुर्दान्त ये इन्द्रिय रूपी घोड़ों के समूह को विवेकरूपी बागड़ोर से वश करके स्वाधीन करेगा तो रागादि शत्रु नहीं उछलेंगे। अन्यथा हमेशा फैलते निरंकुश उनसे तेरा पराभव होगा। जैसे वर्षा करते मेघ द्वारा और हजारों नदियों के प्रवेश द्वारा भी समुद्र में उछाल या जोश नहीं आता, और उस मेघ और नदियों के अभाव में निराश भी नहीं होता है। तो तुझे भोगोपभोग की सामग्री मिलने पर न हर्ष होना चाहिए, न मिलने पर अपकर्ष भी नहीं होना चाहिए ऐसा हर्ष शोक न तब तूं कृतार्थ हुआ ऐसा समझ । क्योंकि दुष्कर तप आदि करने वाले मुनि भी भोगादि की इच्छा रखते हैं उनका कल्याण नहीं है। और 'योग की साधना का रागी घर को छोड़कर वन में मोक्ष की साधना करता है' ऐसा जो कहते हैं वह भी उन मनुष्यों का मोह है। क्योंकि - मोक्ष केवल घर त्याग से नहीं होता परन्तु सम्यग् ज्ञान से होता है। और वह ज्ञान तो पुनः घर में अथवा वन भी साथ रहता है और शेष विकल्पों को छोड़कर वह ज्ञान स्वसाध्य कार्य का साधक भी है, इसलिए हे चित्त ! ज्ञान की महिमा का चिंतन मनन कर । हे मन ! यदि तूं सम्यग् ज्ञानरूपी किल्ले से सुरक्षित रहता है तो संसार में उत्पन्न हुए, और कर्मवश आ मिलते अति रम्य पदार्थ भी तुझे लालची नहीं बना सकते। हे हृदय ! यदि तूं सम्यग् ज्ञान रूपी अखण्ड नाव को कभी भी नहीं छोड़ता है तो अविवेक रूपी नदी के प्रवाह मे तूं नहीं बहेगा। घर में दीपक के समान उत्तम पात्र रूपी जीव में रही हुई मोह की तन्तु रूप बात ( दीवट) का और स्नेह राग रूपी तेल का नाश कर मिथ्यात्व रूपी अंधकार को दूर करते तथा संक्लेश रूपी काजल का वमन करते सम्यग् ज्ञान रूपी दीपक यदि तेरे में प्रकट हो तो हे चित्त ! क्या नहीं मिला ? अर्थात् सर्वस्व मिल गया। गुरु रूपी पर्वत के आधीन रहना अर्थात् गुर्वाधीन रहना । विषयों के वैराग्य रूपी सार तत्त्व वाला ऊँचे स्कंध वाला और धर्म के अर्थी जीव रूपी पक्षियों ने आश्रय बनाया है, ऐसे जो परम तत्त्वोपदेश रूपी वृक्ष, उसके ऊपर शीघ्रता रहित धीरे-धीरे क्रमशः चढ़कर जो सम्यग् ज्ञान रूपी फल को ग्रहण करता है तो तूं मुक्ति का रस आस्वादन कर सकता है। क्योंकि जैसे विद्या सिद्ध वैद्य रोगों की शान्ति का परम उपदेश (उपाय) देते हैं वैसे सद्गुरु ने बाह्य उपचार बिना कर्म रूपी रोग को उपशम करने का परम उपदेशअभ्यंतर उपाय दिया है। हे चित्त! गुरु के उपदेश रूपी इस औषध से केवल अधिगत कर्मों का क्षय होता है ऐसा विचार नहीं करना, परन्तु सकल दुःखों से रहित अजरामरत्व भी प्राप्त होता है ।
1. मोहो एस नराणंजं गिहचागा वणम्मि जोगरओ । साहइ मोक्खं ति भणति जेण सन्नाणओ मोक्खो || १६३४ ||
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