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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार-मन की कुविकल्पता पर वसुदत्त की कथा है। इस तरह उसने और नगर लोगों ने भी उसकी निन्दा की, इससे अति कुविकल्पों से घबड़ाये हुए मन वाले उस वसुदत्त ने पुनः विचार किया कि यह मेरी पत्नी केवल असती ही नहीं, परन्तु शाकिनी भी है कि जिससे मुझे भी इस तरह व्यामोहित करके स्वयं हट गयी है और बहन को मरवा दिया। फिर मेरा क्रोध शान्त हुआ है
और साधु के समान मुख का रंग बदले बिना गंभीर मुख बनाकर मुझे रोकने लगी है, यदि इसने मेरी दृष्टि वंचना नहीं की होती तो क्या अत्यन्त अन्धकार में मेरी बहन को भी मैं नहीं जान सकता? ऐसी कल्पना कर कमल के पत्र समान काली तलवार को खींचकर हे पापिनी! डाकण! हे मेरी बहन का नाश करने वाली! अब तूं कहाँ जायगी? कि जिसे बृहस्पति के समान विद्वान होते हुए भी मुझे तूंने विभ्रमित किया। ऐसा बोलते उसने पत्नी के दोनों होठों सहित नाक को काट दिया।
उसके बाद सूर्योदय हुआ, तब रात्री का सारा वृत्तान्त सुनने से क्रोधित हुए लोगों ने तथा राजा ने उसे नगर में से बाहर निकाल दिया, फिर अकेला घूमता हुआ विदिशा नामक नगर में पहुँचा, वहाँ उसने तारापीढ़ नामक राजा को प्रसन्न किया, प्रसन्न हुए राजा ने उसे नौकरी दी, और प्रसन्न मन वाला वह वहाँ रहने लगा, एक दिन सूर्यग्रहण हुआ तब विचार करने लगा कि-आज मैं ब्राह्मणों को निमंत्रण देकर बहुत साग से युक्त, अनेक जात के पेय पदार्थ सहित विविध मसालों से युक्त अनेक स्वादिष्ट वाले विविध भोजन को तैयार करवाऊँगा और राजा के गडरियों के पास से दूध मंगवाऊँगा। यदि बार-बार विनयपूर्वक मांगने पर भी वे किसी प्रकार से दूध नहीं देंगे तो मैं आपघात करके भी उसे ब्रह्म हत्या दूँगा। ऐसा मिथ्या विकल्पों से भ्रमित हुआ, कल्पना को भी सत्य के समान मानता हुआ, वह 'भोजन का समय हुआ है' ऐसा मानकर अपने मन कल्पना द्वारा निश्चय ही 'बारबार बहुत समय तक मांगने पर भी गडरियों ने दूध नहीं दिया' ऐसा मानकर तीव्र क्रोधवश होकर शस्त्र से अपनी हत्या करने लगा और ऊँचे हाथ करके बोला-अहो लोगों! यह ब्रह्महत्या राजा के गडरियों के निमित्त से है, क्योंकि इन्होंने मुझे दूध नहीं दिया, इस तरह एक क्षण बोलकर जोर से शस्त्र मारकर अपनी हत्या की और रौद्रध्यान को प्राप्तकर वह मरकर नरक में गया। क्योंकि ऐसी स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला चित्त रूपी हाथी से मारा गया जीव एक क्षण भी सुख से नहीं रह सकता है।
इसलिए मन को प्रतिक्षण शिक्षा देनी चाहिए, अन्यथा ऊपर कही हुई परिस्थिति अनुसार क्षणभर भी कुशलता नहीं होती है ।।२०३४।। और स्वच्छंद दास को वश करने के समान, स्वच्छंद मन को ही अपने वश करना चाहिए। जिसने मन पर विजय प्राप्त की है। उसने ही युद्ध मैदान में विजय ध्वजा प्राप्त की है। वही शूरवीर और वही पराक्रमी है। सम्भव है कि कोई पुरुष किसी तरह सम्पूर्ण समुद्र को भी पी जाये, जाज्वल्यमान अग्नि की ज्वालाओं के समूह बीच शयन भी करें शरवीरता से तीक्ष्णधार वाली तलवार की धार ऊपर भी चलें. और तीव्र अग्नि जैसे जलते भाले की नोंक ऊपर पद्मासन पर बैठने वाला भी जगत में प्रकृति से ही चंचल, उन्मार्ग से मस्त रहने वाला और शस्त्र रहित भी मन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं। जो मदोन्मत्त हाथी का भी दमन करते हैं, सिंह को भी अपने वशीभूत बनाते हैं उछलते समुद्र के पानी के विस्तार को भी शीघ्र रोक सकते हैं। परन्तु वे कष्ट बिना ही मन को जीतने में समर्थ नहीं होते, तो भी किसी प्रकार यदि उसने मन को जीत लिया तो निश्चय ही उसने जीतने योग्य सब कुछ जीत लिया। इस विषय में अधिक क्या कहें? मन को जीतने से दुर्जय बहिर आत्मा भी पराजित होता है और उसे पराजित करने से अंतरात्मा परम पद का स्वामी परमात्मा बनता है।
इस तरह मन रूपी मधुकर को वश करने के लिए मालती के पुष्पों की माला समान परिकर्म विधि आदि चार बड़े मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला रूपी आराधना के पन्द्रह अन्तर द्वार वाला प्रथम परिकर्म द्वार में चित्त की शिक्षा नाम का यह छट्ठा अन्तर द्वार कहा ।।२०४३।।
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