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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार-अनियत विहार से गृहस्थ-साधु के साधारण गुण मनोवांछित अर्थों का निधान है। तो भी मूढ़ जीवों को जैसे अत्यन्त मनोहर भी चिन्तामणि प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती है वैसे शुभ पुण्य कर्म के अभाव में श्री जिनपूजा का परिणाम भी नहीं होता है। इसलिए हे देवानुप्रिय आश्चर्य मानो कि इतने भावमात्र से भी अद्यपि यह महात्मा शिवपद को भी प्राप्त कर सकता है, क्योंकि यहाँ से च्यवनकर श्रेष्ठ कुल में जन्म लेकर सुसाधु की सेवा से श्रेष्ठ दीक्षा को स्वीकार करेगा। वहाँ से देव होगा, पुनः वह पुण्यानुबंधी पुण्य से मनुष्य होगा इस तरह आठवें भव में कनकपुर नगर में जग प्रसिद्ध कनकध्वज नाम का राजा होगा और वह धन्यात्मा एक दिन शरत् काल होने पर महावैभव के साथ इन्द्र महोत्सव देखने जायगा, वहाँ मेंढक को निगलते एक बड़े सर्प को देखकर, उस सर्प को भी तीक्ष्ण चोंच से निगलते मत्स्यभक्षी 'कुर कुर' शब्द बोलने वाला कुरर नामक पक्षी को देखकर, और करुण स्वर से रोते उस कुरर पक्षी को भी निगलते यम समान अजगर को देखकर, वह महात्मा विचार करेगा कि जैसे मेंढक को सर्प निगलता है वैसे इस पापी जीव को भयंकर राज्य के अधिकारी निगलते (दंड देते) हैं, अधिकारी को भी कुरर पक्षी समान राजा दण्डित करता है और उस राजा को भी अजगर समान यमराज एक कौर बनाकर निगल जाता है। इस तरह हमेशा आयी हुई आपत्तियाँ रूपी दुःख से भरे हुए इस लोक में मनुष्य को मात्र भोग भोगने की इच्छा करना वह खेदजनक महामोह की मूढ़ता है। इस तरह तीन लोक में जन्म मरण से मुक्त कोई नहीं है, फिर भी वैराग्य उत्पन्न नहीं होता। उन मनुष्यों की मूढ़ता भी खेदजनक है। ऐसा चिंतन मननकर राज्य का, देश का, अंतःपुर का और नगर का त्यागकर श्रमणसाधु होगा तथा शेष सर्व कर्म को खत्म करके सिद्धि को प्राप्त करेगा। इस प्रकार निश्चय ही श्री अरिहंत भगवंत की पूजा का ध्यान भी मोक्षदायी बनता है।
इसलिए यहाँ कहा कि-श्रावक की अर्धमार्ग में किसी तीव्र आपत्ति के वश मृत्यु हो जाये फिर भी पूजा के ध्यान मात्र से भी तीर्थों की पूजा का फल प्राप्त करता है ।।२१३३ ।। इस तरह सम्यग् आलोचना के परिणाम वाले गुरु के पास जाने के लिए निकला हुआ भी यदि बीच में ही बीमारी आदि कोई असुख का कारण हो जाये, तो भी वह आराधक होता है। तथा आलोचना के सम्यक् परिणाम वाला गुरुदेव के पास जाते यदि वह बीच मार्ग में ही मर जाय तो भी आराधक होता है। इसी तरह गुरु के पास जाते हुए आलोचना के परिणाम वाले की यदि बीच में ही असुख-बिमारी आदि हो जाये अथवा मृत्यु हो जाये तो भी वह आराधक होता है। क्योंकि पाप शल्य का उद्धार करने की इच्छा वाला वह संवेग-निर्वेद तथा तीव्र श्रद्धा से पाप की शुद्धि के लिए गुरु के पास जाने से वह भाव से आराधक होता है। इस तरह आलोचना के परिणाम वाले गुरु महाराज के पास आते तपस्वी का भी वहाँ पहुँचने के पहले अपना अथवा गुरु का अमंगल हो जाय तो भी सम्यक् शुद्धि होती है। अथवा अनियत विहार से होने वाले गुण हैं, जैनागम में कहे हुए प्रायः साधु और गृहस्थ के यह साधारण गुण सुनो! ।।२१३९ ।। अनियत विहार से गृहस्थ-साधु के साधारण गुण :
अनियत विहार करने से (१) दर्शन शुद्धि (२) संवेग निर्वेद द्वारा धर्म में स्थिरीकरण, (३) चारित्र के अभ्यास रूपी भावना, (४) सूत्रों के विशेष अर्थ की प्राप्ति, (५) कुशलता और (६) विविध देशों का परिचय परीक्षा, ये छह गुणों की प्राप्त होती है। वह इस प्रकार :
श्री जिनेश्वर भगवंतों की दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण की पवित्र भूमियाँ, जहाँ चैत्य, चिह्न, प्राचीन अवशेष स्थान तथा जन्म भूमियों को देखने से आत्मा प्रथम, सम्यग्दर्शन को अति विशुद्ध करता है। यात्रा करते हुए स्वयं संवेगी को सविशेष संवेग प्राप्त होता है, सद्विधि के द्वारा सुविहितों को संवेग की विशेष प्राप्ति होती है और अनियत विहार से अस्थिर बुद्धि वाले को स्थिरता प्रकट करवाता है, अन्य संवेगियों को, धर्म प्रीति वालों
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