________________
परिवर्म द्वार-मन का छट्ठा अनुशास्ति द्वार
श्री संवेगरंगशाला मिथ्या जगत को तूं नहीं देखता है? कि जिससे विवेक रूपी मन का तूं स्मरण नहीं करता है?।।१८००।। हे चित्त! तूं चपलता से शीघ्रमेव रसातल में प्रवेश करता है, आकाश में पहुँच जाता है और सर्व दिशाओं में भी परिभ्रमण करता है। लेकिन उन प्रत्येक से संग रहित तूं किसी को स्पर्श नहीं करता है। हे हृदय! जन्म, जरा और मृत्यु रूपी अग्नि से संसार रूपी भवन चारों तरफ से जल रहा है इसलिए तूं ज्ञान समुद्र में स्नान कर स्वस्थता को प्राप्त कर! हे हृदय! शिकारी के समान संसार के रागरूपी जाल द्वारा तूंने स्वयं महाबंधन किया है, अतः प्रसन्न होकर इस समय ऐसा कर कि जिससे वह बन्धन शीघ्र नष्ट हो जाये। हे मन! अस्थिर वैभवों की चिन्ता करने से क्या लाभ? इससे तेरी तृष्णा रुकी नहीं, इसलिए अब संतोषरूपी रसायण का पान कर। हे हृदय! यदि तूं निर्विकार सुख चाहता है तो पुत्र, स्त्री आदि के गाढ़ सम्बन्ध से अथवा प्रसंगों से विचित्र इस भव स्वरूप को इन्द्रजाल समझ। यदि तुझे सुख का अभिमान है तो हे हृदय! संसाररूपी अटवी में रहे हुए धन और शरीर को लूटने में कुशल शब्दादि विषयरूपी पाश में मैं फँसा हुआ हूँ ऐसा तूं अपने आपको क्यों नहीं देखता? संसारजन्य दुःखों में यदि तुझे द्वेष है और सुख में तेरी इच्छा है तो ऐसा कर कि जिससे दुःख न हो और वह सुख अनन्त शाश्वत हो। जब तेरी चित्तवृत्ति मित्र-शत्रु में समान प्रवृत्ति वाली होगी तब निश्चय तूं सकल संताप बिना का सुख प्राप्त कर सकेगा। हे मन! नरक और स्वर्ग में, शत्रु और मित्र में, संसार और मोक्ष में, दुःख और सुख में, मिट्टी और सुवर्ण में यदि तूं समान समभाव वाला है तो तूं कृतार्थ है।
__हे हृदय! प्रति समय नजदीक आते और उसको रोकने में असमर्थ एक मृत्यु का ही तूं विचार कर! शेष विकल्पों के जाल का विचार करने से क्या प्रयोजन है? हे हृदय! अनार्य सदृश जरा से जीर्ण होने वाली तेरी यह शरीर रूपी झोपड़ी का भी तूं विचार नहीं करता है? अरे! तेरे ऊपर यह महामोह का प्रभाव कैसा है? हे मूढ़ हृदय! यदि लोक में जरा मरण, दारिद्र रोग, शोक आदि दुःख का समूह प्रकट है। वहाँ भी तूं वैराग्य धारण क्यों नहीं करता है? हे मन! शरीर में श्वास के बहाने गमनागमन करते जीव को भी क्या तूं नहीं जानता है? क्या तूं अजरामर के समान रहता है? हे मन! मैं कहता हूँ कि-राग ने तुझे सुख की आशा से बहुत काल तक परिभ्रमण करवाया है, अब यदि तूं सुख के स्वरूप को समझता है तो आशा राक्षसी को छोड़ और राग के उपशमभाव का सेवन कर, वही तुझे इष्ट सुख प्राप्त करवायेगा। हे मन! बचपन में अविवेक द्वारा, बुढ़ापे में इन्द्रियादि की विकलता से, धर्म की बुद्धि के अभाव से, तेरा नरभव का बहुत समय निष्फल गया है। हे मन! नित्यमेव उन्माद में तत्पर काम का एक मित्र, दुर्गति के महा दुःखों की परम्परा का कारण, विषय में पक्षपात करनेवाली बुद्धि वाला, मोह की उत्पत्ति में एक हेतु, अविवेक रूपी वृक्ष का कन्द, गर्वरूपी सर्प को आश्रय देने वाला चंदन वृक्ष समान और सम्यग् ज्ञानरूपी चन्द्र बिंब को ढांकने में गहन बादलों के समूह सदृश यह तेरा यौवन भी प्रायः सर्व अनर्थों के लिए ही हुआ किन्तु धर्म गुण का साधक नहीं बन सका और हे हृदय! इस घर का यह कार्य किया, इसको करता हूँ और यह वह कार्य करूंगा-ऐसा हमेशा व्याकुल रहते तेरे दिन निरर्थक जा रहे हैं। पुत्री की शादी नहीं की, इस बालक को पढ़ाया नहीं, वे अमुक मेरे कार्य आज भी सिद्ध नहीं हुए हैं, इस कार्य को मैं आज करूँगा, इसको फिर कल करूँगा और अमुक कार्य को उस दिन, पाक्षिक या महीने के बाद अथवा वर्ष में करूँगा। इत्यादि हमेशा चिन्ता करने से सदा खेद करते हुए हे मन! तुझे अल्प भी शान्ति कहाँ से होगी? और हे मन! कौन मूढ़ात्मा स्वप्न तुल्य इस जीवन में, इसको अभी ही करूँ, इसको करने के बाद इसे करूँगा इत्यादि कौन चिंतन करे? हे मनात्मा! तूं कहाँ-कहाँ जायगा और वहाँ जाने के बाद तूं क्या-क्या करके कृतार्थ होगा? इसलिए स्थिरता को प्राप्त कर और स्थिरता से कार्य कर क्योंकि जाने का अन्त नहीं है और कार्यों की प्रवृत्ति का अन्त
81
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org