________________
श्री संवेगरंगशाला
परिकम द्वार-लिंग नामक दूसरा द्वार बिना का, इस लोक के सुख में ही अति रागी, हमेशा अठारह पाप स्थानक में आसक्त मन वाला, और शिष्ट पुरुषों से एवं धर्म-शास्त्रों से जो विरुद्ध कार्य हो उस में भी गाढ़ राग वाला हो, उनकी आराधना योग्य नहीं है।
यहाँ शिष्य (महासेन मुनि) प्रश्न करता है कि-जिसे शस्त्र, अग्नि, विष, विशूचिका रोग, शिकारी पशु या पानी आदि का संकट प्राप्त हुआ हो, वह शीघ्र मरने वाला कैसे आराधक हो सकता है? क्योंकि ये प्रत्येक संकट शीघ्र प्राण लेने वाले हैं। गुरु महाराज ने उत्तर दिया-वह भी निश्चय ही मधुराजा अथवा सुकोशल महाराजर्षि ने जिस तरह आराधना की थी उसी तरह संक्षेप से आराधना कर सकता है। क्योंकि निश्चय बुद्धिबल से युक्त, शीघ्र उपसर्ग उपस्थित होने पर अथवा आ जाने पर भी उपसर्ग जन्य भय को वह नहीं गिनता वह निर्भय होता है यद्यपि जब तक बल वाला है, तब तक भी आत्महित में सम्यग् मन को लगाने वाला, अमूढ़ लक्ष्य वाला, जीवन मृत्यु में राग-द्वेष से रहित, मृत्यु नजदीक आने पर भी संग्राम में सुभट के समान उसके मुख की प्रसन्नता कम नहीं होती, वैसे ही महासत्त्व वाला होता है वह संक्षेप से भी आराधना कर सकता है।
इस तरह शास्त्रों में कही हुई युक्तियों से युक्त और परिकर्म विधि आदि चार बड़े मूल द्वार वाली यह संवेगरंगशाला में आराधना का प्रथम परिकर्म द्वार के पन्द्रह अन्तर द्वार में प्रथम यह अर्ह अर्थात् योग्यता सम्बन्धी द्वार विस्तार से कहा है ।।११९८।। दूसरा लिंग द्वार :
आराधना में योग्य कौन है, वह कहा। अब उस योग्य को जिन चिह्नों से जान सकते हैं उस लिंगों को या चिह्नों को कहते हैं। परलोक को साधने वाला नित्य कर्त्तव्य रूप जिन कथित जो योग पूर्व में कहा था।।१२०० ।। उसमें ही अब संवेग रस की वृद्धि से विशेषतापूर्वक सम्यग् दृढ़ उद्यम करना, उस आराधना के योग्य जीव का आराधना रूपी लिंग है। आराधक गृहस्थ का लिंग :
उत्सर्ग से उस श्रावक को शस्त्र, मूसल आदि अधिकरणों का त्याग, पुष्पादि माला, वर्णक तथा चन्दनादिक विलेपन और उद्वर्तनादि का त्याग, शरीर का परिकर्म, औषध आदि करने का त्याग, एकान्त प्रदेश में रहना, केवल लज्जा को ढांकने के लिए ही वस्त्र धारण करना, समभाव से वासित रहना, जब-जब समय मिले तब-तब प्रतिक्षण सामायिक पौषध आदि में रक्त रहना, राग का त्याग करना, तथा संसार की निर्गुणता के लिए चिंतन करना, सद्धर्म कर्म में उद्यत मनुष्यों से रहित गाँव या स्थान का त्याग करना, काम-विकार के उत्पादक द्रव्यों की अभिलाषा का त्याग करना, हमेशा गुरुजनों के वचनों को अनुराग से सात धातुओं में व्याप्त करना, प्रतिदिन परिमित प्रासुक अन्न, जल का सेवन करना, इत्यादि गुणों का अभ्यास करना, वह निश्चय से आराधक गृहस्थ के लिंग हैं। साधु के भी सर्व साधारण लिंग इसी प्रकार जानना। साधु के लिंग :
(१) मुहपत्ति, (२) रजोहरण (ओघा), (३) शरीर की देखभाल न करना, (४) वस्त्र रहितत्व (जीर्णवस्त्र के कारण) और (५) केश का लोच। ये पाँच उत्सर्ग से साधुता के चिह्न हैं, इन चिह्नों से (१) संयम यात्रा की साधना होती है, (२) चारित्र की निशानी होती है, (३) ये वस्तुएँ पास होने से मनुष्यों को साधुत्व रूप विश्वासपूज्य भाव होता है, (४) इससे संयम में स्थिरता का कारण होता है, और (५) साधु वेश धारण करने से गृहस्थ का कार्य नहीं कर सकता है। इससे गृहस्थ भाव का त्याग आदि गुणों की प्राप्ति होती है। उस वेश को साधु किसी
56
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org