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परिकम द्वार-लिंग नामक दूसरा द्वार-कुलबालक मुनि की कथा
श्री संवेगरंगशाला कहते हैं ।।१२५०।।
इधर चम्पानगरी में श्रेणिक राजा का पुत्र पराक्रम से शत्रु समूह को हराने वाला अशोकचन्द्र (कोणिक) नामक राजा था। उसके हल्ल और विहल्ल नाम से छोटे भाई थे। उनको श्रेणिक ने श्रेष्ठ हाथी और हार भेंट रूप में दिया था। इसके अतिरिक्त दीक्षा लेते समय अभयकुमार ने भी अपनी माता के रेशमी वस्त्र और दो कुण्डल उन दोनों को भेंट दिये थे। उन वस्त्र, हार और कुण्डलों से शोभित हाथी ऊपर बैठे हुए उनको चम्पानगरी में त्रिमार्ग, चार मार्ग आदि में घूमते दोगुंदक देव के समान क्रीड़ा करते देखकर ईर्ष्या से रानी ने अशोकचन्द्र को कहा कि-हे देव! वस्तुतः राजलक्ष्मी तो तुम्हारे भाइयों को मिली है कि जिससे इस तरह अलंकृत होकर हाथी के कन्धे पर बैठकर वे आनन्द का अनुभव करते हैं, और तुम्हें तो केवल एक कष्ट के बिना राज्य का दूसरा कोई फल नहीं है। इसलिए आप यह हाथी आदि रत्न उनके पास माँगो। राजा ने कहा-हे मृगाक्षी! पिताजी ने स्वयं छोटे भाइयों को यह रत्न दिये हैं उनसे माँगने में मुझे लज्जा नहीं आयेगी? उसने कहा-हे नाथ! दूसरा अच्छा राज्य उनको देकर हाथी आदि रत्नों को लेने में आपको लज्जा कैसे आयेगी? इस तरह बार-बार उससे तिरस्कारपूर्वक कहने से राजा ने एक समय हल्ल, विहल्ल को प्रेमपूर्वक बुलाकर इस प्रकार कहा-हे भाइयों! मैं तुम्हें अन्य बहुत हाथी, घोड़े, रत्न, देश आदि देता हूँ और तुम मुझे बदले में यह श्रेष्ठ हस्तिरत्न दे दो। 'इस पर विचार करेंगे।' ऐसा कहकर वे अपने स्थान पर गये और बलजबरी से कहीं ग्रहण कर ले इस भय से रात्री के समय में हाथी पर बैठकर कोई मनुष्य नहीं जाने इस तरह निकलकर उन्होंने वैशाली नगर में चेटक राजा का आश्रय लिया. उनके जाने के बाद अशोकचन्द्र को जानकारी मिली तब विनय से हल्ल. विहल्ल को शीघ्र भेजने के लिए दूत द्वारा चेटक राजा को निवेदन किया। चेटक ने कहा कि मैं उन्हें बलात्कार से किस तरह निकाल दूँ? स्वयंमेव तुझे समझाकर ले जाना उचित है। क्योंकि ये दो और तीसरा तूं मेरे भानजे हैं, मुझे किसी के प्रति भेदभाव नहीं है केवल मेरे घर आये हैं उनको जबरदस्ती में नहीं भेज सकता हूँ। यह उत्तर सुनकर रोष वाले उसने फिर चेटक को कहलवाया कि कुमारों को भेजों अथवा जल्दी युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।
चेटक राजा ने युद्ध स्वीकार किया, इससे समग्र सामग्री लेकर अशोकचन्द्र शीघ्र वैशाली नगर पहुँचा और युद्ध करने लगा। केवल चेटक महाराजा ने उस अशोक चन्द्र के काल आदि दस सौतेले भाइयों को सफल अमोघ एक-एक बाण मारकर दस दिन में दस को मार दिया। क्योंकि निश्चय से उसने एक दिन में एक ही बाण मारने का नियम लिया हुआ था। अतः ग्यारहवें दिन भयभीत बनें अशोक चन्द्र ने विचार किया-आज युद्ध करूँगा तो अब मैं खत्म हो जाऊँगा, इसलिए लड़ना योग्य नहीं है। इस तरह युद्ध भूमि में से जल्दी खिसककर देव सहायता की इच्छा से उसने अट्ठम तप किया, उस अट्ठम तप के प्रभाव से सौधर्मेन्द्र और चमरेन्द्र भी पूर्व संगति को याद करके उसके पास आये और कहने लगे कि-भो देवानुप्रिय! कहो, तुम्हें क्या इष्ट दें? राजा ने कहा-मेरे वैरी चेटक को मार दो। शक्रेन्द्र ने कहा-परम समकित दृष्टि श्रावक है इसे हम नहीं मार सकते हैं, यदि तुम कहो तो उसकी और तुम्हारी भी सहायता करूँगा। अच्छा ऐसा भी करना। ऐसा कहकर अशोक चन्द्र ने चेटक राजा के साथ युद्ध आरम्भ किया, इन्द्र की अबाधित सहायता के प्रभाव से दुदर्शनीय तेजस्वी बनकर वह शत्रु के पक्ष मारता हुआ जब चेटक के पास पहुँचा, तब यम के दूत समान चेटक राजा ने कान तक खींचकर अमोघ बाण उसके ऊपर फेंका, और वह बाण चमरेन्द्र ने बनाई हुई स्फटिक की शिला के साथ टकराया, उसे देखकर चेटक राजा सहसा आश्चर्यचकित हुआ, फिर अमोघ शस्त्र स्खलित हुआ इससे अब मुझे युद्ध करना योग्य नहीं है। ऐसा विचारकर वह शीघ्र नगर में गया। लेकिन चमरेन्द्र और शक्रेन्द्र ने निर्माण किया रथयुद्ध,
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