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परिकर्म द्वार-लिंग नामक दूसरा द्वार
श्री संवेगरंगशाला प्रकार विशेष संस्कार किये बिना ही जैसे मिला हो वैसा ही संयम को बाधा रूप न हो इस तरह शरीर के साथ धारण कर रखे और सूत्र में स्थविर कल्पिओं की उपधि के चौदह प्रकार कहे हैं उस अनुसार उपकरण रखें हैं। मुहपत्ति आदि लिंगों का प्रयोजन और उसका लाभ :
मुनि को मुखवस्त्रिका मस्तक और नाभि के ऊपर शरीर के प्रमार्जन करने के लिए हैं और मुख श्वासोच्छ्वास वायु की रक्षा के लिए और धूल से रक्षा के लिए रखने को कहा है। यह मुहपत्ति द्वार कहा । जो रज और पसीने के मैल से रहित हो, मृदुता, कोमलता और हलका हो ऐसे पाँच गुणों से युक्त रजोहरण की ज्ञानियों ने प्रशंसा की है। जाने आने में, खड़े होने में, कोई वस्तु रखने में, अलग करने में, तथा बैठने में, सोने में, करवट बदलने में इत्यादि कार्य में प्रमार्जन के लिए रजोहरण है। यह रजोहरण द्वार कहा । शरीर मसलना, स्नान, उद्वर्तन तथा बाल, दाढ़ी मूँछ को स्वस्थ सुशोभित रखना, दाँत, मुख, नासिका तथा नेत्र भृकुटी को स्वच्छ रखना आदि शुश्रूषा को नहीं करनेवाला तथा रुक्ष और पसीने के मैल से युक्त शरीर वाला, लोच करने से शोभा रहित मस्तक वाला, बड़े नख-रोम वाला जो साधु हो', वह ब्रह्मचर्य का रक्षण करने वाला है। यह शरीर शुश्रूषा त्याग द्वार कहा ।
पुराने (जीर्ण), मलिन, प्रमाणोपेत - प्रमाणानुसार, अल्प मूल्य वाले वस्त्र जीव रक्षा के लिए रखने से भी वस्त्र रहितत्व जानना इससे परिग्रह का त्याग होता है, अल्प उपधि होती है, अल्प पडिलेहण होती है निर्भयता, विश्वासपात्रता, शरीर सुखों का अनादर, जिनकी सादृश्यता, वीर्याचार का पालन, रागादि दोषों का त्याग, अनेक गुण अचेलक्य से होते हैं। यह अचेलक्य द्वार कहा है ।।१२१८।।
इत्यादि
लोच से लाभ :
(१) महासात्त्विकता का प्रकट होना, (२) श्री जिनाज्ञा पालन रूप जिनेश्वर भगवान का बहुमान, (३) दुःख सहनता, (४) नरकादि की विचारणा से निर्वेद, (५) अपनी परीक्षा और ( ६ ) अपनी धर्म श्रद्धा, (७) सुखशीलता का त्याग और (८) क्षुर कर्म से होने वाला पूर्व-पश्चात् कर्म के दोषों का त्याग, (९) शरीर में भी निर्ममत्व, (१०) शोभा का त्याग, (११) निर्विकारिता और ( १२ ) आत्मा का दमन होता है।
इस प्रकार लोच से विविध गुणों की प्राप्ति होती है, और दूसरे लोच न करने से जूँ आदि होने से पीड़ा होती है, मन में संक्लेश होता है, और हर समय खुजाने से परिताप आदि दोष होते हैं। यह लोच द्वार कहा । इस तरह साधु सम्बन्धी पाँच प्रकार का सामान्य लिंग कहा है। अब गृहस्थ और साधु दोनों के उन लिंगों को कुछ विशेष रूप से कहूँगा ।
गृहस्थ साधु के सामान्य लिंग :
ज्ञानादिगुण, गुणों की खान श्री गुरुदेव के चरण कमल की सेवा करने में तत्परता, थोड़े भी अपराध होने पर बार-बार अपनी निन्दा, सविशेष आराधना करने में रक्त मुनियों की श्रेष्ठ कथाएँ सुनने की इच्छा, अतिचार रूपी कीचड़ से मुक्त, निरतिचार जीवन व्यतीत करने वाला, मूल गुणों की आराधना में प्रीति, पिंड विशुद्धि आदि मुख्य क्रियाओं में बद्ध लक्ष्य, पूर्व में स्वीकार किये संयम में निरवद्यता पूर्वक स्थिरता, इत्यादि गुणों का समूह यह साधुओं का विशेष लिंग जानना, हित की अभिकांक्षा वाले गृहस्थों को भी यह लिंग यथायोग्य जानना। केवल ऐसे गुण वाले भी जो किसी कारण से क्रोध में फंसकर संयम में प्रेरणा करने के द्वारा सद्गति के 1. बडे नख वाला विशेषण जिनकल्पियों के लिए हैं।
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